अंग्रेजों के गुलाम
अंग्रेजों के गुलाम ! ! !
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जि हाँ ,
भाईयों,
अंग्रेजों के गुलाम।बहुत ही बुरा लगता है ना,सुनकर या पढकर ?
मगर, दुर्दैववश यही वास्तव है,यही सच्चाई है,यही असलियत है।
अंग्रेज देश छोडकर चले गए,मगर हम मानसिक गुलाम बन गए।
या जानबूझकर बनाए गए ?
हमने अंग्रेजी शिक्षा पध्दति स्विकार की,रहनसहन अंग्रेजों का स्विकार किया।
हम नया साल हिंदू कालगणना के अनुसार, मनाना भूल गए,हम चैत्र शुध्द प्रतिपदा,पाडवा, तो मनाते है,मगर ?
हमें हाय-हैलो की लत लग गई मगर रामराम कहना हम भूल गए या कहनेवालों को गँवार, खेडुत,अज्ञान समझने लगे।
हमने मुगलों की भी गुलामी स्विकार की,शहर,गली के नाम हम गर्व से मुगलों के बिनादिक्कत लेने लगे।
हमें अकबर महान पढाया गया,हम स्विकारते गए।धिरे धिरे हमारी संस्कृति, सभ्यता,स्वाभिमान को भूलकर, हम आक्रमणकारियों की जीवन प्रणाली स्विकारते गए,और हमारे ही आदर्शों को,महान सिध्दांतों को भूलते गए।
हमारे देश में हमारे ही देवी देवताओं की,महापुरुषों की,सिध्दपुरुषों की विडंबना देखकर भी हमारा खून कभी गरम नही हुवा।हम बहुसंख्यक होकर भी,दिनबदिन मानसिक गुलामी सहर्ष स्विकारते गए।
दुर्दैव हमारा।जगत् में महान होकर भी, हम हमें ही भूल गए।देह के अंदर आत्मा होता है,आत्मतत्व होता है,जो निरंतर निराकार ब्रम्ह से जुडा होता है यह भी हम भूल गए।भूलभूलैया में हम सदा के लिए लटक गए,अटक गए और जीवनभर के लिए सत्य से-सत्य सनातन से,ईश्वरी सिध्दांतों से भी दूर भटक गए।
और अगर हमें कोई दुर्दैव से बाहर खिंचकर, हमारी महानता-असलियत कोई बताने की कोशिश भी करने लगे तो ?
हम उसको ही मुर्ख,अनपढ,गँवार समझने लगे।
असलियत है ना यही मेरे प्यारे सभी भाईयों ?
असली सोने का त्याग करके,हमने नकली सोना- पितल पर लगाया,सोने का मुलामा का स्विकार किया, और असली सोना ?
हम गुलामी स्विकारने वाले,असलियत को,असली सोने को ही हँसने लगे।
सचमुच में हमारी मानसिकता इतनी निचे आ गई ?
सद्गुण विडंबना का विषय बन गया,और हँसते हँसते हम ...सहर्ष दुर्गुणों का स्विकार करते गये।
मदिरा, माँसभक्षण जैसे अवगुण, भी हम मजे से,आनंद से,स्विकारते गए।
और सद्गुणों को स्विकारने वाले- निंदा,हँसी मजाक का विषय बनते गए ?
आखिर क्या हो गया है हमको ? क्या हो गया है मेरे आदर्श समाज को ?
क्या हो गया है,सिध्दांतो के लिए मर मिटनेवालों को ?
इंद्रदेव को भी ,वज्र बनाने के लिए, वृत्तासुर जैसे असुर का और असुरी वृत्ति का नाश करने के लिए-अपने ही तपोबल से या योगशक्ति से-अपनी खूद की अस्थियाँ भी तुरंत निकालकर देनेवाले-तपस्वी...दधिची जैसे महात्माएं आखिर कहाँ गए ?
हमारा शौर्य,हमारा आदर्श, हमारे सिध्दांत आखिर हम क्यों भूल गए ?
देवी देवताओं के उत्सव में हम डिजे लगाकर,हिडिस फिल्मों के गीत लगाकर,हिडिस नृत्य भी हम आनंद से करने लगे ?
हमारे ऐसे कृत्य से देवीदेवताओं को ही म दुख दे रहे है,इसका भी भान हमें रहा नही है सचमुच में ?
हम ऐसा क्यों और कैसे बन गए ?
बहुत दुखदर्द होता है भाईयों, ऐसा भयंकर दृष्य देखकर।
हम तेजस्वी ईश्वरपुत्र होकर भी इतने हिन - दिन कैसे बन गए ?
सचमुच में हम मानसिक गुलाम बन गए ? या हमें ऐसा बनाया गया ?
सोचो...
बार बार सोचो।
सौ बार सोचो।
और अगर यही वास्तव है
तो ....???
हमारी रेलगाड़ी फिर से पटरी पर कब आयेगी ?कौन लायेगा ? कब लायेगा ?
कटु है,मगर वास्तव है भाईयों, स्विकारना तो पडेगा ही।और रास्ता भी ढुंडना पडेगा।
अब हमें संस्कृति बचानी ही नही है,बढानी भी है,
और.....
विश्व के कोने कोने में पहुंचानी भी है।
कभी राम बनके,कभी कृष्ण बनके,कभी रामकृष्ण बनके,कभी चाणक्य बनके,कभी चंद्रगुप्त बनके,कभी विवेकानंद बनके,कभी वीर योध्दा शिवाजी- महाराणा - पृथ्वीराज - गुरु नानक बनके,तो कभी ज्ञानेश्वर बनके।
शांती का प्रतीक भगवा,
क्रांति का भी प्रतीक भगवा,
कभी शांती से,कभी क्रांति से....
भगवान का प्यारा भगवा हमें घर घर तो पहुंचाना है ही,
विश्व के कोने कोने में भी पहुंचाना है।
और हम सभी ईश्वर पुत्र, अमृत पुत्र हमारे मकसद में यशस्वी होकर ही रहेंगे।
हमारे देश को मानसिक गुलामी से भी बाहर निकालेंगे, और निकालने में कामयाब ही होकर रहेंगे।
वादा रहा?
तबतक के लिए
हरी ओम।
प्यारे भाईयों।
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-- विनोदकुमार महाजन।
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