सत्पुरुष और साँप

सत्पुरुष और साँप...।
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दोस्तों,
यह एक बोधकथा है।
दो विरूद्ध वृत्तियों की कहानी।
दोनों वृत्तीयां भी ईश्वर निर्मीत।
बडा विचित्र संयोग है यह।
ईश्वर की अद्भुत लिला।

अदृष्य ब्रम्हांड का रचीयेता भगवान और उसीकी लिला बडी बडी ही विचित्र है।

दो विरूद्ध वृत्तीयां, दो विरूद्ध शक्तीयां खुद भगवान ने निर्माण की।

और मजे की बात देखो,
सृष्टि से निर्मीती से सृष्टि के अंत तक का उनका संघर्ष भी बडा विचित्र है।

सज्जन - दुर्जन।
देव - दानव।
सत्य - असत्य।
अमृत - जहर।

और ठीक इसी प्रकार से साधुत्व और सैतानियत।

साधुत्व में दया,क्षमा,शांती,परोपकार, संयम,अहिंसा, मानवता,प्रेम इत्यादी ईश्वरी गुणसंपन्नता होती है।
तो सैतानियत में क्रौर्य,अशांति, अमानवीयता,हिंसा,धोकाधड़ी, कपट,जहरीला दुष्ट और हाहाकारी आचरण और स्वार्थ भाव जैसे राक्षसी गुण होते है।

सत्पुरूष और साँप यह भी बडी विचित्र, ईश्वर निर्मीत दो विरूद्ध वृत्तीयां होती है।

पहली परोपकारी तो दुसरी कृतघ्न।
मानवी समुह में भी ऐसी दो विरुद्ध वृत्तीयां, हरजगह,अनेक घरों में दिखाई देती है।
और परिणाम स्वरूप...?
दोनों वृत्तीयों का कभी भी समाप्त न होनेवाला कडा संघर्ष।और उससे उत्पन्न होनेवाली विचित्र परिस्थितियां।

अब सत्पुरुष और साँप की यह बडी विचित्र बोधकथा भी पढीये।

 एक सत्पुरुष  एक छोटीसी झोपडी में अनेक सालों से ईश्वरी साधना करते थे।अर्थोपार्जन का तो कोई साधन नही था।मगर फिर भी पुण्य प्रभाव से किसी बातों की चिंता भी नही थी।बडे आनंद से उनका गुजारा चल रहा था।

मौन,शांती,परोपकार, दया,अखंड ईश्वरी चिंतन यह उनकी नितदिन की दिनचर्या थी।

एक दिन उनको उनकी झोपडी के नजदीक अधमरा हुवा काला साँप दिखाई दिया।
परोपकार और दयाभाव का सहजस्वभाव होने के कारण उनको उस साँप की दया आ गई।उन्होंने उस साँप को उठाकर अपने झोपडी में ले आये।

बेचारा साँप...???
नितदिन वह सत्पुरुष उस साँप की सेवा करते।उसको बडे प्यार से खाना खिलाते थे।उसपर इलाज करते थे।

धिरेधिरे वह साँप जो अधमरा था,ठीक होने लगा।
और एक दिन उस सत्पुरुष की वजह से....
पूरी तरह से तंदुरुस्त भी गया।ताकतवर भी होने लगा।
और स्फुर्तीला भी होने लगा।

और एक दिन....

बडा भयंकर हुवा....

परोपकारी सत्पुरुष के सामने वह जहरीला साँप अपने स्वभाव के अनुसार, फन निकालकर खडा हो गया।
सत्पुरुष ने उसकी तरफ ध्यान नही दिया।
फिर दुसरे दिन भी ऐसा ही हुवा।
अब वह साँप सत्पुरुष पर फुस्स.. फुस्स ... करके जोर जोर से फूत्कार भी करने लगा।
सत्पुरुष ने फिर ध्यान नही दिया।

और एक दिन अती भयंकर हुवा।
वह साँप ने परोपकारी सत्पुरुष को डस लिया.....।

फिर क्या हुवा....???🤔
सत्पुरुष मर गये...???
नही बाबा।

अरे बाबा,वह सत्पुरुष थोडे ही साधारण आदमी थे ? जो ऐसे साँपों के केवल एक बार डसने से मर जाते...?
वह सत्पुरुष एक बडे महासिद्ध योगी थे।
जन्म और मृत्यु पर विजय प्राप्त करनेवाले।
( मगर उस साँप को उससे क्या लेनादेना था ? )
और..उस साँप के जहर से वह पुण्यात्मा की मृत्यु थोडे ही होगी ???

साँप भी हैरान रह गया।साँप भी सोचने लगा की,
अरे,
इतना जालीम मेरा जहर....
फिर भी यह मरा क्यों नही ???

उस साँप ने फिर से उस सत्पुरुष पर हमले की सोच ली....

दोस्तों,
इसके आगे की दिलचस्प कहानी बडे ध्यान से सुनना।
क्यों....???
क्योंकि इस कहानी से तुम्हारा भी गहरा संबंध है।
कैसे....?
बताता हुं।
थोडा धिरज तो रख प्यारे...।

जहरीले साँप की अगली रणनीति के अनुसार वह फिर से वह सत्पुरुष को डस गया।
सत्पुरुष बच गये।
बारबार ऐसा होता रहा।

आसपास के लोग भी हैरान रह गये।और एक दिन उन लोगों ने उस सत्पुरुष को पुछ ही लिया...

" महाराज, वह साँप आपको हमेशा डसता है।और हमारे अभ्यास के अनुसार यह एक बहुत जहरीला साँप है।फिर भी आप जीवित कैसे रहते हो...?"

सत्पुरुष थोडे मन ही मन मुस्कुराये और बोले...
" उसका धर्म है डसना, वह धर्म वह पूरा कर रहा है।और मेरा धर्म है सभी पर परोपकार करना,तो मैं मेरा धर्म पूरा करता हुं।"

लोग अचंभित और हैरान रह गये।और फिरसे उस सत्पुरुष को पुछ बैठे...

" महाराज, मगर यह तो बडा भयंकर जहरीला साँप है।किसिको पानी तक माँगने नही देता है।और आप तो इससे बारबार दंश करने पर भी बच जाते हो ?यह कैसे...?"

उन अज्ञान जीवों को देखकर सत्पुरुष मन ही मन में हंस पडे और वहाँ से कुछ बोले बगैर निकल पडे।

बोधकथा समाप्त।

बोधकथा क्या सिखाती है...?
दोस्तों,
हमारे आसपास, अगल बगल में भी ऐसे जहरीले साँप जैसे ,मनुष्य रूपी दुष्टात्माएँ, पापत्माएँ मौजूद होते है।
हम उनके अंदर का जहर,उनके अंदर का क्रौर्य, उनके अंदर की कृतघ्नता नही देखते है।
और बारबार उस महान सत्पुरुष की तरह दुष्टों पर भी,दयाभाव से या फिर कुछ कारण वश परोपकार ही करते रहते है।उनको पालने पोसने में,फलने फुलने में सहायता करते है।

और एक दिन यही दुष्टात्माएं वही जहरीले साँपों की तरह कितना भी दयाभाव दिखाने पर,परोपकार करने पर भी,हमपर फन निकालते है।डस लेते है।

उस सत्पुरुष की तरह हर एक तो महासिद्ध योगी तो नही होता है।जो बारबार ऐसा जहर हजम करने में सक्षम होता है।अपनी जान भी अद्भुत शक्ती द्वारा बचा सकता है।

सोचो,समझो,जानो,जागो।
आँखें खोलो।
अगल बगल के,अडोस पडोस के जहरीले साँपों को पहचानो।
जो केवल डसने का ही काम करनेवाला है।चाहे तुम उसपर कितना भी उपकार कर दो।दयाभाव दिखा दो।
उसे तो तुम्हें डसकर तुम्हारा सर्वनाश ही करना है।

पक्का तय है यह...।

उसे बस्..समय का इंतजार है।
फिरसे दोहराता हुं।

उसे बस्..समय का इंतजार है।

कैसे....???
सदीयों से यही सिलसिला चल रहा है।चलता आ रहा है।

डर के मारे,सबकुछ छोडकर..
हम भाग रहे है,भाग रहे है...।

कितने दिनों तक भागोगे ?
कहाँ भागोगे  ?
कहाँ छिपोगे ?

आया कुछ समझ में,ट्यूबलाइट जल गई...?
या और भी अंधे ही हो ?
अंधीयारा ही है आँखों के सामने ?

मेरा कहना एक बार नही,दस बार नही,सौ बार नही,हजार बार सोचो।
बारबार सोचो।
जहरीले साँपों से बचना है,हमारी अगली पिढी को भी बचाना है
तो...
जागृत...हो जावो।
सावधान हो जावो।
अखंड सावधान।

और आगे क्या बताऊं ?
कितनी कथाएं, लेख लिखुँ ?

जहरीले साँपों के जहर से बचना है .....
या अस्तित्व शून्य बनना है...
यह आपपर ही निर्भर है।

तेजस्वी ईश्वर पुत्रों,
जाग जावो।
अतुलनीय पराक्रम द्वारा नया इतिहास बना दो।
धरती का स्वर्ग बना दो।
पाप का कलंक मिटा दो।

माता भारती और माता धरती को जहरीले साँपों से बचा लो।

आँखें खोल प्यारे आँखें खोल।
घने अंधियारे में अब प्यारे,
मत हो डांवाडोल प्यारे,
आँखें खोल।

तुम्हारे अंदर का ईश्वरी तेज,धधगती ज्वाला, अंगार दिखा दो।अंतरात्मा को जगावो।
सत्य की रक्षा करों।
ईश्वरी सिध्दातों की जीत करो।
हाहाकारी हैवानियत की..
सदा के लिए हार कर दो।

बोलो...है तैय्यार..?
सब मिलकर तैय्यार..?

बोलो सब मिलकर एक साथ..
जय जय श्रीराम।
जय श्रीकृष्णा।
हर हर महादेव।

हरी हरी : ओम् ।
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विनोदकुमार महाजन।

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