गुरूत्व प्रखर होता है

 गुरूतत्व उपर से अग्नि समान प्रखर

मगर फणस जैसा अंदर से मिठा होता है

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जब सद्गुरु शिष्य की परीक्षा लेने के लिए कठोर शब्दों द्वारा प्रहार करते है तो गुस्सा नहीं करना चाहिए अथवा बूरा नहीं मानना चाहिए।अथवा नाराज होकर सद्गुरु से दूर भागना भी नहीं चाहिए।

क्योंकि सद्गुरु जब कठोर शब्दों द्वारा अथवा आचरण द्वारा जब शिष्य पर प्रहार करते है 

तो साफ है की सद्गुरु की परीक्षा में वह शिष्य पास हो जाए।कठोर शब्दों द्वारा अग्नि में जलकर वह शिष्य शुध्द हो सके।और प्रारब्ध गती के पापों से भी मुक्त हो सके।


कोई दुष्ट लोग कहते है की,ऐसा करनेवाला सिध्द पुरूष कैसे बन सकता है ?


अक्कलकोट स्वामी जी की भाषा कठोर थी।और बडे उंचे आवाज में स्वामीजी बाते करते थे,ऐसा कहते है।

इसका उद्देश्य पवित्र ही होता था।और शिष्यों के कल्याण के लिए स्वामीजी ऐसी बाते करते थे।


कभी कभी सद्गुरु शिष्यों के कर्म जलाने के लिए लाठी से भी प्रहार कर सकते है।सहनेवाला और अग्नि परीक्षा में पास होनेवाला शिष्य होगा तो जनम जनम के कल्याण ही होते है।


गजानन महाराज शेगांव के जिन्होंने अपने एक शिष्य का कुष्ठ रोग उनकी थुक द्वारा ठीक किया था।जब गजानन महाराज उस कुष्ठ रोगी के बदन पर जब थूके थे तब उस महान भक्त ने उस थुकी का मल्हम बनाकर पूरे शरीर को लगाया था।तब उसका कुष्ठ ठीक हुवा था। 

उस शिष्य ने गलतफहमीयों में आकर गजानन महाराज को शरीर पर थूकने पर गलत नहीं कहा था।


सिध्दपुरूष बडे विचित्र होते है।उनको समझने की हमारे अंदर क्षमता चाहिए।


कठोर शब्दों से प्रहार करते तो है..मगर अंदर से फणस के गर जैसे बिल्कुल मिठे होते है।


साथियों, इसीलिए कभी भी सिध्दपुरूषों के दोष निकालनेकी कभी भी गलती मत किजिए।


प्रखर अग्नीतत्व जैसे सोने को जलाकर शुध्द करता है...ठीक वैसे ही सिध्दपुरूष अपने आचरण द्वारा समाज शुध्दि का कार्य भी करते है।

हरी ओम्

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विनोदकुमार महाजन

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