नियती का खेल

 जब हमारे दोष न होकर दोष लगते है...तब...।

--------------------------------

जींदगी बडी हसीन है दोस्तों।और उतनी ही बडी विचित्र भी।

और उतनी ही बडी दुखदाई भी।


वैसे तो मानवी जीवन में अनेक बार बडी विचित्र और अनपेक्षित घटनाओं का समाप्त नहीं होनेवाला सिलसिला पिछे लगता है।और मनुष्य जीव हैरान हो जाता है।

और हुश्श...हुश्श... करके परेशानियों का सामना इच्छा न होकर भी सहना पडता है।


इसिका नाम जीवन है।इसिका नाम जींदगी है।सुखदुखों का बडा विचित्र खेल चलता ही रहता है।


अब देखो,

कई बार ऐसे अनेक अनपेक्षित प्रसंग भी आते है की...पूछो मत।और ऐसी भयंकर स्थिति में धैर्य और मन की शांति अनपेक्षित प्रसंगों पर विजय दिलाती है।


मगर कभी कभी होता ऐसा है की,प्रारब्ध के खेलों में हम विनावजह गहरी मुश्किलों में फँस जाते है।और वह मुश्किलें निरंतर हमारे पिछे भागते रहती है।

कभी कभी एक निष्पाप, निष्कलंक जीव भी नियती के चक्कर में ऐसा फँस जाता है की,

नितदिन, निरंतर उसे बदनामीयों का ही सामना करना पड़ता है।


अगर कोई प्रारब्ध गती के अनुसार मुर्च्छित हुवा है,अथवा खुद की सुधबुध खो बैठा है...पागलों की तरह इधर उधर भटक रहा होता है...

तो दुनियावाले भी बडा विचित्र खेल खेलते है उस बेचारे के साथ।

बडी बेरहमी के साथ अनेक चोटें खानी पडती है...सुह्रदय पर।


कभी कभी अथवा अनेक बार भी, चोरों को ही नवरत्नों का हार मिलता है।और इमानदारों को पत्थरों का प्रहार झेलना पड़ता है।

बडी विचित्र होती है नियती भी और उसका खेल भी।


और ऐसी भयंकर अथवा भयावह स्थिति में एक तो माँ ही निष्पाप, निरपेक्ष प्रेम दे सकती है अथवा सहारा दे सकती है।अथवा सद्गुरु ही नैय्या पार करा सकते है।


और इस.प्रारब्ध के खेल में मां ही नहीं रही अथवा सद्गुरु भी ना मिलें तो ???


शायद बेमौत मृत्यु।

या फिर जीर्ण शीर्ण,पत्तेहीन,शाखाहीन पेड की तरह निर्जन स्थान का जीना।

और ऐसे पेड को पुनर्जीवित करेगा भी कौन ?


बडा विचित्र खेल है नियती का।बडा विचित्र खेल है प्रारब्ध का।


और कभी कभार चमत्कार भी होता है।जीर्णशीर्ण, पत्तेहीन, शाखाहीन, निर्जन, निर्जल स्थान के रूखे सुखे बेसहारा पेड भी पुनर्जीवित होते है...और उसे भी फुलों की,फलों की बहार आ सकती है।


और विचित्र दुनियादारी वाले भी ऐसा दृष्य देखकर हैरान हो जाते है।


गजब की दुनिया।और गजब की दुनियादारी।

ऐसी विचित्र दुनियादारी में रंगबिरंगी, रंगबदलनेवाली और मुखौटे वाली दुनिया भी होती है।और जीसे जानना... पहचानना भी बडा विचित्र होता है।


रंग बदलती दुनिया में,मुखौटे वाली इंन्सानों की दुनिया में किसपर कितना भरौसा करें ?

इंन्सानों की यह भयंकर दुनियादारी से बेहतर होते है...साफ दिलवाले,पशुपक्षी।

निष्पाप जीव बेचारे।ऐसे निष्पाप जीवों की भाषा अथवा संवेदना, रंग बदलने वाला इंन्सान कैसे जान सकेगा ?

बडा विचित्र दुनिया दारी का और मोहमाया का खेल।


और सत्पुरुष ऐसे खेलों से हमेशा दूर भागते रहते है और रंग बदलती दुनिया से खुदको बचाते रहते है।


ऐसी मोहमई, मायावी दुनिया में रहकर भी संत कहते है...


ज्योत से ज्योत मिलाते रहो

प्रेम की गंगा बहाते रहो।


मगर प्रेम की बहती गंगा में भी कोई जहर मिलाने वाला भी कोई मिलें...तो आखिर क्या करें।


बडा विचित्र इंन्सानों का खेला।

बडा विचित्र इंन्सानों का मेला।


ऐसे भयंकर खेले और मेले में...

बचके रहना रे बाबा,बचके रहना रे...

क्योंकि मुसीबतों की घडी में कोई नहीं तेरा रे....


यह जीसने भी स्विकार किया।

वह जीवन की बडी कठीन लडाई समझो जीत गया।

शेष अगले लेखों में।

हरी ओम्

-------------------------------

विनोदकुमार महाजन

Comments

Popular posts from this blog

मोदिजी को पत्र ( ४० )

हिंदुराष्ट्र

साप आणी माणूस