वह बडा कठोर है

 " *वह "* बडा कठोर है,पिछा ही नही छोडता है...मगर कौन ?

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चाहे अमरीका में जाएं, दिल्ली जाएं अथवा और कही भी जाएं... *वह...* पिछा ही नही छोडता है।हमेशा साथ रहता है।और भयंकर दुखदर्द भी देता है।


कौन ?


नाम है उसका...

" प्रारब्ध, संचित, कर्म,नशीब... "

जी हाँ...

हमारे सुखदुखों का सारा खेल तो हमारा पिछले जनम का प्रारब्ध ही है।प्रारब्ध गती के फेरों की वजह से...

आदमी चाहे कुछ भी करें...दुखों से मुक्ति ही नही मिलती है।


हर एक का संचित कर्म अलग अलग होता हैं।इसिलिए हर एक का सुखदुख भी अलग अलग होता है।

हर एक मनुष्य प्राणी को कोई न कोई दुख तो जरूर होता ही है।


कौन सुखी है दुनिया में ?

जरा बता तो देना।


और

बहुत कोशिश करता है इंन्सान दुखमुक्त होने का।


मगर यह कर्म नाम की चीज ही बडी भयंकर होती है।कर्म हमें नही छोडता है।दुखमुक्त बनने का हर प्रयास व्यर्थ जाता है। कर्म दुखमुक्त नही होने देता है।और निरंतर पिछा करता रहता है।


कर्म से छुटाकारा पाने का एक ही आसान रास्ता है...

ईश्वरी चिंतन, अथवा गुरूमंत्र का अखंड जाप।


प्रत्यक्ष भगवान श्रीकृष्ण अभिमन्यू के साथ देहरूप में होने के बावजूद भी चक्रव्यूह में फँसकर...अभिमन्यू की अपमृत्यु नही टल सकी।


प्रत्यक्ष भगवान भी पंचमहाभूतों का देह धारण करके पृथ्वी पर आते है...तो प्रत्यक्ष भगवान को भी कर्म के मारे भयंकर दुखों का सामना करना पडता है।


और सिध्दपुरूष ?


प्रत्यक्ष ईश्वर से निरंतर संवाद होकर भी महापुरुषों को,सिध्दपुरूषों को भी कर्म का हिसाब पूरा करना ही पडता है।


साथीयों,

अगर कर्म...

पिछले जनम का पापपुण्य का हिसाब पूरा करना है...

और दुखों से मुक्ति चाहिए...

तो...

निरंतर,नितदिन....

एकांत में मौन होकर... 

सभी मनुष्यों से नाता तोडकर...

अखंड ईश्वरी चिंतन अथवा गुरूमंत्र का जाप अत्यावश्यक होता है।


क्योंकि रिश्ते नातों के चक्कर में फँसोगे तो...निरंतर दुख बढता ही जायेगा।

रिश्ते नातों का चक्कर तो बडा मोहमई होता है।

इसीलिए सभी से नाता तोडकर और केवल ईश्वर से ही नाता जोडकर... 

अखंड तपश्चर्या करने से ही कर्म पर विजय हासिल हो सकेगी, अथवा मनुष्य दुखमुक्त हो सकेगा।

यह मेरा तेरा का भूलभुलैया का चक्कर बडा अजीब होता है।


मगर यह भी हर एक मनुष्य प्राणी को संभव नहीं है।


इसीलिए अनेक साधुसंत तो यह माया का बाजार छोडकर सदा के लिए सभी से नाता तोडकर, एकांत वास में चले जाते है...

अथवा निर्जन स्थान जैसे हिमालय में जाकर, केवल और केवल ईश्वर से ही नाता जोडते है।


साथियों,

कर्म, संचित, प्रारब्ध, नशीब का चक्कर बडा विचित्र है।और साधारण इंन्सानों को यह चक्कर तोडना भयंकर मुश्किल होता है।


हर एक की कर्म की गठरी में सुख बहुत कम...

दुख ही जादा अथवा दुख ही दुख होता है...

और यह दुख का भयंकर जहर हर एक को इच्छा न होकर भी...

पीना भी पडता है,और हजम भी करना पडता है।


दुखों के जहर के घुंट तो पिने ही पडते है दोस्तों।

इसीलिए नाराज न होकर दुखों से दोस्ती करेंगे... तो शायद सुख भी हासिल करेंगे।


हम जैसे जैसे दुखों से दूर भागने की कोशिश करते है...

वैसे वैसे दुख हमारा पिछा करता रहता है।


मगर कर्म से,दुखों से बहुत ही आनंद से दोस्ती करेंगे तो...

शायद...

सुख का अनुभव करेंगे।


मेरे सद्गुरु, मेरे दादा..मेरे *आण्णा* हमेशा यह कहते थे की,दुखों से दूर भागो मत...

दुखों का मुकाबला करने को सिखो...दुखों से बडे आनंद से दोस्ती करना सीखोगे... तो...जीवन की लडाई भी जरूर जीतोगे।

तब दुख भी हारेगा और कर्म भी हारेगा।


मगर यह कैसे संभव होगा ?


कोशिश करनेवालों की हार नही होती।


हरी ओम्

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विनोदकुमार महाजन

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