सज्जनों की और दुर्जनों की संगत

 सज्जनों की संगत स्वर्ग समान होती है,और दुर्जनों की संगत नरकसमान !!!

लेखांक : - २०२०


विनोदकुमार महाजन

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साथींयों,

आज का लेख का विषय थोडा अलग है।जो हम सभी के जीवन में नित्य अनुभव को मिलता है।


सज्जन संगत और दुर्जन संगत।


सज्जनों की संगत सदैव आनंददायी, हर्षोल्लासित करने वाली होती है।सज्जन हमेशा दूसरों का दूख निरंतर, नितदिन दूर करने की कोशीश में लगातार लगे रहते है।सज्जनों को परदु:ख  ,अपना खुद का दु:ख लगता है।और इसिलिए सज्जन व्यक्ती परपिडा, खुद की पिडा समझकर दुसरों का दुखदर्द हरन करने के लिए खुद को निरंतर झौंक देते है।

आर्थिक लाभहानी का विचार किए बगैर, ऐसे व्यक्ती दुसरों को सदैव आधार देते रहते है।

कभी आर्थिक आधार देते है,कभी मानसिक आधार देते है।तो कभी खुद भूका रहकर भूके को खाना भी खिलाते है।

सज्जनों के सहवास में हमेशा शांती बनी रहती है।इसिलिए सज्जनों का सहवास हमेशा आनंददायी तथा मन को प्रफुल्लित करनेवाला रहता है।मन की संतुष्टी का यह क्षण होता है।

सज्जनों की संगत में हमेशा उच्च कोटी का स्वर्गीय आनंद प्राप्त होता रहता है।


साधु - संत इसी श्रेणी में आते है।सभी के दुखों में आधार बनना और दूसरों को दुखमुक्त बनाना ही ऐसे महात्माओं का जीवन का उद्देश होता है।और जीवनभर ऐसे महात्मा अपने उद्दिष्ट पुर्ती में लगे रहते है।


मगर ऐसे महात्मा, महापुरुष,साधु -  संत समाज में कितने प्रतिशत होते है ? और ऐसा आनंददायी क्षण कितने व्यक्तियों के नशीब में होता है ? 

यह भी संशोधन का विषय है।क्योंकी घोर कलियुगी माहौल में ऐसा आनंदीत करनेवाला सौभाग्य का क्षण कदाचित ही प्राप्त होता है।और जब ऐसा क्षण हमें सौभाग्य से प्राप्त होता है तब...उच्च कोटी का आनंद तथा उच्च कोटी की आत्मानुभूती हमें प्राप्त होती है।


दूसरी महत्वपूर्ण बात यह भी होती है की,समाज में अगर कोई सह्रदयी,परोपकारी व्यक्ती भी मिलता है...

तो....?

यह मतलब की दुनिया और विचित्र स्वार्थी दुनियादारी ,कलियुगी माहौल के कारण,ऐसे महात्वांको भी हमेशा फँसाने की कोशीश में रहती है।


कमाल की दुनिया और कमाल की दुनियादारी।


इसिलिए ऐसे महात्मा एक तो हमेशा एकांत में रहना पसंत करते है,अथवा तंग आकर अथवा आत्मोध्दार के लिए हिमालय जैसे निर्जन स्थान में जाकर, ईश्वर के नितदिन सानिध्य में रहकर अपना जीवन बिताते है।

रिश्तेनातों का,समाज का संपूर्ण रिश्ता नाता तोडकर केवल ईश्वरी चिंतन में ही खुद को झोंक देते है।

तो कुछ महात्मा बारबार ऐसा स्वार्थ का माहौल देखकर भी,ऐसे ही मतलबी समाज में रहकर, समाजोध्दार का निरंतर प्रयास करते रहते है।


इसिलिए सज्जनों का सहवास हमेशा आनंददायी, हर्षोल्लासित करनेवाला, निरंतर दिव्य अनुभूती देनेवाला होता है।स्वर्गीय आनंद जैसा होता है।


कभी प्रेम से तो कभी गुस्से से अथवा कभी शब्दों के प्रहार द्वारा ऐसे महात्मा सामाजिक सुधार अथवा बदलाव के लिए सदैव प्रयासरत रहते है।


साथीयों,

अब देखते है दुर्जनों का सहवास कैसा होता है ?


दुर्जन ...।

अरे बापरे। भयंकर घोर विपदा।

हमेशा परपिडा देने में,दुसरों को सदैव दुखदर्द देने में ही आनंद माननेवाला तामशी,विकृत व्यक्ति।

दुर्जनों पर हम चाहे कितना भी प्रेम करें,उसको प्रेमामृत बांटे,उसका हमेशा भला करें...दुखदर्द में उसका साथ दें,

तो भी ऐसे व्यक्ति कब धोखा देंगे,विश्वासघात करेंगे इसका कोई भरौसा नही होता है।

हमेशा जहर उगलना और दुसरों को पिडा देना ही दुर्जनों के जीवन का मकसद होता है।हमेशा दुसरों को हतोत्साहित करना, परपीड़ा, परनिंदा में ही ऐसे आसुरीक व्यक्तियों को आनंद मिलता रहता है।संत - सज्जन - सत्पुरुष जैसे श्रेष्ठ व्यक्तियों का भी ऐसे दुष्टों को कुछ लेनादेना नही होता है।उल्टा अच्छा और नेक आदमी सामने देखकर, दुर्जन जादा क्रोधीत हो उठते है।और सज्जनों को भी सदैव, निरंतर, चौबिसों घंटे भयंकर नारकीय पिडा देने में ही दुर्जनों को हमेशा राक्षसी आनंद मिलता रहता है।

इसिलिए हम दुर्जनों से हमेशा दूर भागने की कोशीश में रहते है।


कोई मुसिबतों में फँसा है तो...ऐसे दुर्जनों को और जादा आनंद होता है।और दुखितोंको मानसिक आधार देने के बजाए, ऐसे दुष्टात्माएं ह्रदय पर सदैव कुठाराघात करते रहते है।और उसे धन्यता मानते है।


और आज तो भयंकर घोर कलियुग का भयावह माहौल चल रहा है।इसिलिए ऐसे दुष्टात्माएं हमें हर जगहों पर,जगह जगह पर मिल ही जायेंगे।


दुर्जनों को टालने की हम कितनी भी कोशीश करें,लाख कोशीश करें...दुर्जन हमेशा हमारे सामने आकर हमेंशा परेशान करने की ही कोशीश करते रहेंगे।


दुष्ट, दुर्जनों के कंठों में कलियुग में भयंकर पिडादायक जहर भरा होता है।

जहरीले साँप भी दुर्जनों से बेहतर होते होंगे।

क्योंकी साँप एकबार ही काटता है।और उसका इलाज भी हो सकता है।

मगर दुर्जन ?

बारबार शाब्दिक जहर से काटता रहेगा।

और इसका जालिम इलाज भी नही है।


इसिलिए हमेशा दुसरों को भलाबूरा कहने में ही,बोलने में ही ऐसे दुष्ट लोगों को आनंद होता है।

और ऐसे व्यक्ती हमेशा आसुरीक सिध्दांतों पर चलना ही पसंत करते है।परोपकार क्या होता है,इनको कभी मालूम ही नही पडता है।उलटा परोपकारी व्यक्ती सामने देखते ही दुर्जनों का खून खौलने लगता है।


इसिलिए सज्जन व्यक्ती हमेशा दुर्जनों से दूर भागने की कोशीश करते रहते है।

और इसकी ,दुर्जनों को सुधारने की,कोई कानूनी काट भी नही है।


दूसरी महत्वपूर्ण बात यह होती है की,दुर्जनों का अगर हम विरोध करते है तो...उनकी शक्ती और बढ जाती है।उलटा दुर्जन हमेशा ऐसा मौका ही ढुंडते रहते है की,उनका कौन विरोध करें ?


सज्जनों को नेस्तनाबूत करने की दुर्जनों की हमेशा होड सी लगी रहती है।


जीवन में अनेक बार ऐसा भी होता है की,दुर्जनों को टालने का प्रयास करने पर भी हम उन्हे टाल नही सकते है।इसिलिए ऐसे भयंकर विपदाओं के समय में हम दुर्जनों को मिठी मिठी बातें करके समय निभाने का मौका ढुंडते रहते है।


इसिलिए दुर्जनों का सहवास हमेशा पिडादायक, दुखदायक और नारकिय जीवन जैसा होता है।


अनेक बार ऐसा भी होता है की,एक ही घर में ऐसी दो विरूध्द और विपरीत शक्तियां रहती है।

सज्जन और दुर्जन।

ऐसे घर में हमेशा संघर्ष, मानसिक तानतनाव रहता है।कभी कभी ऐसे माहौल में युध्दक्षेत्र का भी रूप धारण हो सकता है।

ऐसे भयंकर वातावरण में हमेशा सज्जनों को आत्मक्लेश और आत्मग्लानी के सिवाय कुछ नशीब में होता ही नही है।और ऐसे घर में हमेशा अशांती का माहौल बना रहता है।


और मन की स्थिती यह बनती है की,भागें तो कहाँ भागे ?

ऐसे समय में कर्मभोग समझकर,हाश्य हुश्य करते करते दुखी मन से हम दिन काटते रहते है।


नशीब अपना अपना।

हर एक के नशीब में स्वर्गीय सूखों का,आनंद का,दिव्यत्व का भाग होता ही नही है।बल्की कर्मभोग हमें दुखदर्द के साथ भोगना ही पडता है।

संचीत या प्रारब्ध समझकर जहर भी हजम करना पडता है।


ऐसी विपदाओं की घडी में सद्गुरू के शरण में जाना अथवा निरंतर ईश्वरी चिंतन करना ही,विपदाओं की घडी में हितकारी होता है।


इसिलिए मित्रों,

बी पाँझिटिव्ह।


यह भी दिन जायेंगे।

मेरे भी दिन जरूर आयेंगे ही आयेंगे...

यही मन की धारणा अशांत मन को शांती प्रदान करती है।


सब का कल्याण हो।

सबका मंगल हो।

कोई दीनदुखी ना रहे।

👍👍👍👍👍👍👍

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हरी ओम्

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【 तेजस्वी ईश्वर पूत्र बनों 】

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