ईश्वराधिष्ठीत समाज निर्माण के लिए

 ईश्वराधिष्ठीत समाज निर्माण के लिए....

लेखांक २०१९


विनोदकुमार महाजन

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चौ-यांशी लक्ष योनियों का ,लगभग सभी सजीवों का जीवन, ईश्वराधिष्ठीत अर्थात, ईश्वरी सिध्दांतों पर आधारित होता है।

जैसा ईश्वर ने दिया वैसा आनंदी, स्वच्छंद जीवन।

एक मनुष्य प्राणी छोडकर बाकी सभी सजीव, ईश्वर ने जैसा जीवन दिया है,वैसा ही जीवन जीते है।


सभी योनियों में देहतत्व अलग अलग होकर भी,आत्मतत्त्व एकसमान होता है।

आहार, निद्रा, भय,मैथून का,पुनर्रउत्पादन का सुत्र भी लगभग एकसमान।

जन्म मृत्यु का सुत्र भी एकसमान।


आत्मतत्व से सभी जीव एक ही ईश्वर की संतान।


मगर....

मनुष्य प्राणियों को ईश्वर ने बुध्दि का वरदान देकर,सब प्राणियों से थोड़ा अलग ही बनाया है।

हमेशा सद्सद्विवेक बुध्दी जागृत रखकर योग्य निर्णय लेने की क्षमता केवल मनुष्य प्राणीयों में ही होती है।

और नर का नारायण बनने की क्षमता भी केवल और केवल मनुष्य प्राणी में ही वरदान स्वरूप दिखाई देती है।

इसके साथ ही बुध्दि का सदुपयोग करके सभी सजीवों में एकसमान आत्मतत्व और ईश्वरी अंश मानकर, सभी सजीवों का पालकत्व भी ईश्वर ने मनुष्य प्राणी को ही दिया है।


मगर होता उल्टा है।क्योंकि ईश्वरीय सत्वगुण प्रधानता धारण करके सभी के अखंड कल्याण का स्विकार करने के बजाए,

मनुष्य प्राणी तमोगुण प्रधानता धारण करके,उन्मादी और हाहाकारी बनता है।और आसुरी सिध्दातों को अपनाकर ....

राक्षस जैसे गुण धारण करके,परपीड़ा देनें में ही आनंद मानता है।


खुद का ईश्वरी सत्वगुण प्रधानता वाला, प्रभावी गुण को छोडकर, खुद में ही ईश्वर का अंश है यह भूलकर,तमोगुणी बनकर, हैवान बनकर उपद्रव मचाता रहता है।

और परिणाम स्वरूप सामाजिक समीकरण बिगड़ जाता है और हाहाकारी, उन्मादी सिध्दातों को धारण करके,तबाही मचाता रहता है।

और ईश्वर को,ईश्वरी सिध्दातों को भी ललकारने लगता है।


सत्य युग, द्वापर, त्रेता, कलियुग में मनुष्यों के सत्व - रज - तम के गुण कमजादा हो सकते है।

मगर ईश्वरी सिध्दांत और आसुरी सिध्दांतों का द्वंद्व तो हमेशा चलता ही रहता है।


और देव - दानव संघर्ष की परिसिमा होती है।


आज संपूर्ण पृथ्वी पर नजर डालेंगे तो क्या दिखाई देगा ?

तामसी आसुरीक सिध्दांतों पर चलने वालों ने सत्वगुणी ईश्वरी सिध्दांतों पर चलनेवालों का जीना ही हराम किया हुवा है।


इसिलिए ईश्वराधिष्ठीत समाज निर्माण के बजाए, आसुरीक समाज निर्माण में ही राक्षसी आनंद मिलने वालों की संख्या बढ गई है।

इसिलिए संस्कृती संपन्न, संस्कृती पूजक,धर्माधिष्ठित समाज निर्माण के बजाए,

स्वार्थी, पाखंडी, अहंकारी, मदोन्मत्त,परपिडा देने में ही आसुरीक आनंद मिलने वाला समाज जादा मात्रा में दिखाई देता है।


सनातन धर्म अर्थात हिंदू धर्म हमेशा आदर्श सिध्दांतों पर चलकर, खुद का कल्याण, सभी सजीवों का कल्याण ,परोपकार, भूतदया, शांती, अहिंसा की सदैव शिक्षा देता रहता है।


मगर भयंकर कलियुगी माहौल में सत्य को स्विकारने की जगह असत्य को स्विकारकर, राक्षसी सिध्दातों को बढावा देना और ईश्वरी सिध्दांतों के विरूद्ध आचरण करना,

यही तथ्यहीन सिध्दांतों का अनुसरण किया जाता है।


मूर्ती भंजन, मंदिर तोडना,संस्कृती भंजन, दुसरों के आदर्शों पर हमले करना, गौहत्या जैसे भयंकर उपद्रवी निर्णयों से,

ईश्वराधिष्ठीत समाज निर्माण की जगहपर हैवानियत भरा समाज निर्माण होता है।


मगर जब आसुरीक सिध्दांतों द्वारा हाहाकार मच जाता है,और तामसिक, उपद्रवी शक्तियों द्वारा,सज्जन - सत्पुरूषों के...

" त्राही माम् " की स्थिती बनती है....

तो.....

सृष्टिकर्ता ईश्वर भी चिंतित होता है।और ईश्वर भी धीरे धीरे क्रोधित हो जाता है।

परिणाम स्वरूप हैवानियत को मिटाने के लिए उग्र तथा ज्वाला जैसा भयंकर नारसिंह बनकर प्रकट हो जाता है।

और हाहाकारी हैवानियत को सदा के लिए नेस्तनाबूद कर देता है।


संपूर्ण विश्व में सत्य को,सत्य सनातन को,ईश्वर निर्मित आदर्श हिंदु धर्म को मानने वालों की,स्विकारनेवालों की,धर्मावलंबी होकर,ईश्वरी सिध्दातों पर चलने वालों की, आदर्श समाज की संख्या धिरे धिरे कम क्यों होती जा रही है ?

और इसी जगहपर,

पैसों का लालच देकर अथवा तलवार के बल पर सिध्दांत विहिन समाज बनाने की अथवा आसुरीक सिध्दांतों को बढावा देने की राक्षसी महत्वाकांक्षी ,अहंकारी ,

हाहाकारी मनुष्य प्राणीयों की संख्या जब बढने लगती है,अथवा बढ जाती है...तब 

" धर्म संकट "

बनता है।और ईश्वराधिष्ठीत समाज निर्माण की जगह पर आसुरीक समाज निर्माण को बढावा दिया जाता है।


विश्व में सबसे पूरातन, 

अनादी - अनंत और ईश्वर निर्मित संस्कृती केवल एक ही है...और वह है वैदिक सनातन संस्कृती , हिंदू धर्म संस्कृती।


और संपूर्ण पृथ्वी निवासी मानवसमुह को सनातन संस्कृति के साथ नाता जोडऩे से ही ईश्वराधिष्ठीत समाज निर्माण संभव है।

और इसी में ही सभी का कल्याण भी संभव है।


क्योंकि सभी पशुपक्षियों पर,सजीवों पर,चराचर पर,ब्रम्हांड पर ईश्वरीय पवित्र प्रेम करने की उच्च कोटि की परिभाषा केवल और केवल सनातन धर्म में ही है।

इसीलिए सभी के कल्याण के लिए संपूर्ण मानवसमुह को सनातन संस्कृति से नाता जोडने से ही,ईश्वराधिष्ठीत समाज निर्माण, सृष्टि संतुलन, सभी सजीवों का संवर्धन और संरक्षण अपेक्षित है।


इसीलिए केवल हिंदूराष्ट्र निर्माण अथवा अखंड भारत से ही संपूर्ण वैश्विक मानव को पुर्णत्व प्राप्त होगा...ऐसा संभव नहीं है।बल्कि

" ।। हिंदूमय  विश्व ।।"

की संकल्पना और  निर्माण में ही

सभी मानवसमुह का कल्याण तथा संपूर्ण सजीवों का रक्षण तथा कल्याण अपेक्षित है।


इसिलिए

" । वसुधैव कुटुंम्बकम् । "

अथवा

" । सर्वे भवंतु सुखिन : । "

की अभिलाषा रखनी है तो...

"। विश्व - स्वधर्म - सूर्य - देखें ।"

यही उच्चतम आकांक्षा और मनोदय लेकर आगे बढेंगे...


तो निश्चित रूप से संपूर्ण मानवजाती का कल्याण, सभी सजीवों को अभय,पेड - जंगलों का संरक्षण और संवर्धन होगा।

और विश्व मानव को 

" पूर्णत्व " का वरदान प्राप्त होगा।


इसीलिए साथीयों,

चलो सत्य की ओर।

चलो अंतिम सत्य की ओर।

चलो सत्य सनातन की ओर।

चलो हिंदूत्व की ओर।

चलो ईश्वरी सिध्दांतों की ओर।

चलो धर्माधिष्ठित, 

ईश्वराधिष्ठीत समाज निर्माण की ओर।

चलो सभी के सुख की ओर।

हरी ओम्


गुरूपौर्णीमा,बुधवार दि.१३/७/२०२२


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