धर्म ग्रंथों का सार
राक्षसों का सर्वनाश....।
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हम धर्म ग्रंथ क्यों पढते है ?
इसका पारायण क्यों करते है ?
धर्म ग्रंथ हमें क्या सिखाते है ?
शुध्द भाव से,शुध्द मन से ईश्वर की शरण में जाकर,सत्य का,ईश्वरी सिध्दातों का,मानवता का,सद्गुणों का स्विकार करना।पशुपक्षियों सहीत सभी पर सच्चा प्रेम करना।निसर्ग नियमोँ का पालन करते करते धरती का और सृष्टि का कल्याण करना....
यही धर्मग्रंथों की सीख होती है।
इसके साथ ही दुर्गुणों का त्याग करके,हैवानियत का,अमानवीयता का,राक्षसी सिध्दातों का,हाहाकारी - उन्मादी दुर्गुणों का त्याग करके,
सभी का कल्याण चाहना और सभी का कल्याण करना,
यही धर्मग्रंथों की सिख होती है।
इसी आदर्शों को सामने रखकर, भगवान ने भी विविध उद्दीष्टों को सामने रखकर,धरतीपर अनेक अवतार धारण किये है।
ताकी,
अच्छाई की जीत हो और बुराई का अंत हो।
ईश्वर जब भी मनुष्य देह में अवतरित होते है और ईश्वरी शक्ती की वृध्दि और राक्षसी शक्तीयों का नाश यही उनका उद्दीष्ट होता है।
अनेक बार भगवान ने हाथ में शस्त्र लेकर,उन्मत्त, उन्मादी, हाहाकारी ,दुष्ट शक्तियों का नाश ही किया है।
राक्षसी सिध्दातों का नाश करने के लिए, ऐसे राक्षसी सिध्दातों को कठोर दंडीत करना अथवा मृत्युदंड देना ही ईश्वरी अवतार का मुख्य उद्देश्य रहा है।
रावण,कंस,हिरण्यकशिपु, दुर्योधन, जरासंध जैसे अनेक हाहाकारी, उन्मादी, मानवता के शत्रु राक्षसों का भगवान ने भी मृत्युदंड देकर ही हाहाकार का नाश किया है।
क्योंकि जबतक सुदर्शन चक्र द्वारा दुर्जनों का सर कलम नही होता है,
भवानी की तलवार से जब तक अनेक उन्मादी राक्षसों का नाश नही होता है,
तबतक शांती की अपेक्षा करना,हाहाकार का नाश होना,अमानवीय सिद्धांतों की हार होना असंभव होता है।
यही तो धर्म ग्रंथ हमें सिखाते है।
इसिलए धर्म ग्रंथ केवल पाठ करने के लिए सिमित नही होते है।तो धर्म ग्रंथों में बताए गये आदर्श सिध्दातों का स्विकार करना तथा तदनुसार आचरण करना ही,
धर्मग्रंथों के पठन का सही अर्थ होता है।
इसिलए अच्छाई की जीत और बुराइयों का अंत देखने के लिए, खुद को इसके अनुरूप बनना या बनाना ही यथोचित होता है।
वैष्णव जन तो तेने कहिए,
जो पिड पराई जाने रे।
यह तो ठीक है।
मगर....
परपिडा क्या होती है यह समझने की जिसकी योग्यता नही है,
अथवा जानबूझकर परपिडा देने की केवल सिख ही देनेवालों को
यह पंक्ति उचित नही बैठती है।
सैतानों के आगे एक गाल में थप्पड़ मारनेपर,
दुसरा गाल आगे करने का मतलब,
हमारे सर्वनाश को ही आमंत्रित करना होगा ना ?
या फिर अहिंसा का अर्थ राक्षसी तथा उपद्रवी शक्तीयों को बढावा देना नही है,
बल्कि,
ऐसे उन्मादी शक्तीयों का प्रथम अहिंसा के मार्ग से,
और फिर धिरे धिरे,
साम - दाम - दंड - भेद नितीसे,
बुराईयों का,बुरी शक्तीयों का और राक्षसी सिध्दातों का विरोध करना ही उचित होगा ना ?
या हमारे देवताओं ने,धर्म ग्रंथों में केवल अहिंसा की ही शिक्षा दि है ?
अगर ऐसा होता तो.... अत्याचारी,आक्रमणकारी,चोर,लुटेरे,
अत्याचार करते रहते
और हम,
उनका विरोध करने के बजाय,
अहिंसा के मार्ग पर चलकर,
उनकी पूजा करते,
और खुद का सर्वनाश करते ?
सोचो भाईयों सोचो।
असलियत सोचो।
धर्म ग्रंथों का आधार सोचो।
देवीदेवताओं के आचरण के बारें में सोचो।
और...
अगर...
आज भी...
ऐसे अत्याचरी, दुर्गुणी, उन्मादी,राक्षसी सिध्दातों वाले,
अमानवीय ढंग से हाहाकार मचा रहे है...
तो...
क्या उनके आगे,
दुसरा गाल आगे करना उचित होगा ?
या फिर,
ईश्वरी गुणसंपन्न होकर,
ऐसे उन्मादी, हाहाकारी, उपद्रवी,राक्षसी सिध्दातों का विरोध करना,
अथवा यथोचित तथा अती शिघ्र राक्षसी सिध्दातों का नाश करनेवाला कानून बनाना,
और उसका अमल करना,
यथोचित होगा ?
धर्म ग्रंथ क्या कहते है ?
भगवत् गीता क्या कहती है ?
उत्तर मैं नही दूंगा।
उत्तर तो आपकी अंतरात्मा देगी।
बोलो भगवान श्रीकृष्ण की,
जय हो।
सुदर्शन चक्र धारी,
भगवान श्रीकृष्ण की,
जय हो।
सत्य की जय हो।
ईश्वरी सिध्दातों की जय हो।
सत्य सनातन की जय हो।
आसुरों का नाश हो।
उन्मादी, हाहाकारी, राक्षसी सिध्दातों का सर्वनाश हो।
अमानवीय तत्वों की हार हो।
मानवता की जीत हो।
हरी ओम्
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विनोदकुमार महाजन।
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