लालच,लाचारी और स्वाभीमान शून्यता
लालच,लाचारी और स्वाभिमान शून्यता।
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साथीयों,
विश्व पटलपर अमरीका, जापान, जर्मनी, फ्रांस, इटाली जैसे अनेक देशों ने कडी मेहनत से संपन्नता तथा आर्थिक स्थैर्य खिंचकर लाया।
राजनैतिक तीव्र इच्छाशक्ति की वजह से वहां का समाज आर्थिक संपन्न भी हुवा और सामान्य लोगों को आर्थिक स्थैर्य प्राप्त होकर, एक स्वाभीमानी जीवनशैली का उच्च कोटि का जीवन प्राप्त हुवा।और अनायास ही धर्मावलंबी समाज भी बनाया गया।उनके धर्म के प्रति कोई बुरा कहता,करता है तो...तुरंत कानूनी सख्त एक्शन लिया जाता है।
मगर मेरे देश को ही क्या हो गया ? सोने की चिडिय़ा वाला देश दरीद्री कंगाल क्यों हुवा ? क्या गलतियां थी हमारी ? राजनैतिक तीव्र इच्छाशक्ति का अभाव या जानबूझकर भयंकर, विपर्यस्त कूटनीति द्वारा सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक खच्चिकरण किया गया हमारे देश में ?
अगर हाँ...तो इसका जिम्मेदार कौन ?
खैर,अब मूल विषय पर आते है।
मेरे समाज की भयंकर दुर्दशा देखकर अंदर से भयंकर पिडा होती है,दर्द होता है।
मेरा समाज लालची, लाचार, स्वाभिमान शून्य, हीन, दीन ,धर्म के प्रती उदास देखता हुं तो आँखों से अनायास ही आँसू आते है।
आर्थिक गुलामगिरी और आर्थिक बैसाखियों के सहारे जीने की मेरे समाज को आदत सी लग गई है,लत लग गई है।
सबकुछ हराम का चाहिए, बगैर कष्ट का चाहिए, मुक्त चाहिए, फ्री चाहिए।
और इस फ्री के चक्कर में और लालच ने मेरा समाज कंगाल बन गया...या फिर बनाया गया ?
कौन है ऐसा बेईमान, गद्दार जिन्होने मेरे समाज के जड पर ही प्रहार किया और समाज स्वाभिमान शून्य, लालची, लाचार बना दिया ?
दो वक्त की रोटी को तरसता, भूका... कंगाल समाज आखिर स्वाभिमान शून्य तो बनेगा ही।लाचार तो बनेगा ही।
अब सवाल यह आता है की,दूसरे देशों की तरह आर्थिक सुबत्ता खिंचकर लाने के बजाय, देश को और देशवासियों को भूका, कंगाल जानबूझकर क्यों और किसने बनाया ?
यह निती क्यों अपनाई ?
राजा विक्रमादित्य के समय में देश के हर घर का व्यक्ति सधन था,संपन्न था,स्वाभिमानी था,लाचारी और लालच से दूर था।
ईमान के लिए मर मिटने को तैयार था।
तो आज समाज से बहुतांश मात्रा में ईमानदारी ही जड से क्यों उखाड़ दी गई ?
बैसाखियों के आधार पर जादा दिन चलने वाला समाज मृतप्राय हो जाता है।उसका सत्व,तत्व समाप्त हो जाता है।
और यही निती जानबूझकर अपनाई गई।बैसाखियों के सहारे जीने वाला लालची समाज क्या आदर्श निर्माण करेगा ?
क्यों मजबूर समाज बनाया जानबूझकर ?
किसने यह भयंकर पाप किया ?
समाज तोडऩे के लिए ? समाज धर्म भ्रष्ट बनाने के लिए ?
ऐसा किया गया ?
मेरा सुसंस्कृत समाज असंस्कृत बनाने के लिए ऐसे कदम उठाये गये ?
अगर हाँ,तो कौन है ऐसा बेईमान ?
चार चार दिन भूका रहेंगे तो चलेगा, मगर जियेंगे तो स्वाभिमान से ही जियेंगे,ईमानदारी से जियेंगे... यह सामाजिक धारणा ही क्यों मारी गई ?लालच में आकर लाचार नहीं बनेंगे.. यह धारणा क्यों मारी गई ?
दस करोड़ का नोटों का बंडल हो अथवा सौ करोड़ का बंडल भी दिखाई देगा तो उसको हाथ नहीं लगाउंगा और मेरे सिध्दातों के विरुद्ध नही जाऊंगा...ऐसी हमारे समाज की धारणा थी,वह कहाँ गायब हो गई ?
इसिलए मेरे देश में एक कहावत थी,
लाठी पर सोना लगाकर भी बाहर निकलेंगे... तो भी चोरी मारी का कोई डर नहीं था...
यह धारणा ही समाप्त हो गई।
क्यों ?
स्वाभिमान के लिए मर मिटने वाले हमारे महापुरुषों को याद किजिए।
याद करो महाराणा प्रताप को।
स्वाभिमान के लिए जंगल में रहकर घास की रोटियां खाई।
मगर मुगलों की लाचारी नहीं स्विकार की।
याद करो झांसी की राणी लक्ष्मी बाई।सिध्दातों के लिए मर मिट गई।
याद करो राजे संभाजी।
तडप तडप कर मार दिया क्रूर औरंगजेब ने।
मगर...? स्वाभिमान छोडकर लाचारी नही स्विकारी मेरे आदर्श शंभूराजे ने।
धर्म परिवर्तन करने के बजाय मृत्यु को गले लगाया।
क्यों भूल गये हम आखिर हम हमारे ही आदर्शों को ?महापुरुषों के त्याग को ?
हँसते हँसते छोटे छोटे बच्चे खुशी से फाँशी पर लटक गये ।
क्यों भूल गये हम उनके बलिदान को ? उनके त्याग को ?
भूका, कंगाल मरूंगा, मगर किसिके घर नहीं जाऊंगा,लाचार नही बनुंगा, किसीके सामने मुसिबतों की घडी में हाथ नही फेहराउंगा।
आखिर यह सामाजिक धारणा ही क्यों मर गई ? या मारी गई ?
परिणाम स्वरूप समाज तेजोहीन बन गया।और अनायास ही धर्म भ्रष्ट भी बन गया।
आज अगर जी तोड कोशिश भी की...तो यह टूटा हुवा समाज, धर्म के प्रति जोडना आसान रह गया है ? नही ना।
किसने यह घोर पातक किया ?
हमारे समाज की,आंतरिक म्लानि और उदासीनता ही इतनी भयावह बन गई है की,संतों के,महापुरुषों के आदर्श रास्तों से,सिध्दातों से जाने के लिए कोई तैयार ही नही है।
उल्टा महापुरुषों को,साधुसंतों को ही ,देवीदेवताओं को और हमारे आदर्शों को ही जानबूझकर... टार्गेट किया जा रहा है,बदनाम किया जा रहा है।
और ऐसे मार्गों से जाकर, अनायास ही धर्म भ्रष्ट पिढी बनाने की भयंकर जालिम निती बनाई जा रही है।
और इसी मक्कड जाल में हमारा समाज भी फँसता जा रहा है।
इसको बाहर निकालेगा कौन ?
जो बाहर निकालनेकी कोशिश करता है..उसपर ही हमले हो रहे है,उसको ही अटकाया,लटकाया जा रहा है।
मगर एक बात तो पक्की है की,जो आदर्श सिध्दातों के रास्तों से चलते है...उन्हें चाहे कोई इंन्सान साथ दे ना दें,कोई इंन्सान सहयोग करें ना करें...
उसे भगवान जरूर सहायता करता है।हर पल,पग पग पर उसका रास्ता दिखाता है।और हर मुसिबतों से बचाकर उसे आगे आगे ले ही जाता है।
और जिसका खुद ईश्वर ही रखवाला है अथवा ईश्वर ही जिसकी अहोरात्र चिंता करता है..उसको कैसा और कौनसा डर रहेगा ?
इंन्सानों की दुनिया में वह भले ही हर कदम फूंक फूंक कर चलेगा ही,मगर ईश्वराधिष्टीत दुनिया में वह हर दिन निश्चिंत होकर...आगे आगे ही बढेगा।
मृतप्राय, लाचार, लालची,हीन, दीन समाज को नवसंजीवनी देकर, उस समाज को चैतन्यदाई, संपन्न, आनंदी, स्वाभिमानी बनाने की ही लगातार कोशिश करेगा।लगातार मुसीबतों का सामना करना पडेगा या फिर पग पग पर जहर हजम करना भी अगर पडेगा...
तो ?
तेजस्वी ईश्वर पूत्र थोडे ही हार मानेगा ?
तो मेरे तेजस्वी ईश्वर पूत्रों,वीर पूत्रों, सनातनी भाईयों...
चलो सत्य की ओर,चलो सत्य की आखिरी जीत की ओर।
चलो ईश्वरी सिध्दातों की ओर।
हमारे मृतप्राय,लाचार, लालची, हीन, दीन समाज को फिर से नवसंजीवनी देकर तेजस्वी, स्वाभीमानी बनाते है।
राजा विक्रमादित्य जैसा सोने की चिडिय़ा वाला संपन्न समाज बनाते है।
ईश्वराधिष्टीत समाज बनाते है।
जहाँ पर माँगने वाला कोई नहीं रहेगा।
सब देनेवाले ही होंगे।
भूका,कंगाल कोई नही रहेगा।धर्म द्रोही भी कोई नहीं रहेगा।
सब के सब धर्माभिमानी और धर्मावलंबी ही होंगे।
कानून ही ऐसा बनायेंगे.. जो धर्म द्रोहियों को सख्त और तुरंत, विनाविलंब कठोर सजा दें।
जब धर्म द्रोहियों पर प्रहार होगा,उनको जड से उखाड़ फेंका जायेगा...
तब जरूर धर्मावलंबी, स्वाभिमानी समाज बनकर ही रहेगा।
और मैंने भी ठान ली है,
मेरे मृतप्राय समाज को मैं नवसंजीवनी देकर ही रहुंगा।
सारे रास्ते अपनाऊंगा।
मगर मेरे समाज को हीन, दीन नहीं रहने दूंगा।
उसे तेजस्वी, स्वाभिमानी बनाकर ही रहुंगा।
और राजा विक्रमादित्य जैसा मेरे देश को
सोने की चिडिय़ा वाला देश
फिरसे बनाकर ही रहूंगा।
कसम से।वादा रहा।
आखिर विक्रमादित्य जैसी भयंकर कठोर अग्नीपरीक्षाएं,सत्वपरीक्षाएं भी पार की है।
अनेक सालों तक अनेक जालीम जहर भी हजम किए है।
कार्य सफलता के लिए अनेक सालों की कठोर तपस्या भी की है।
मगर चाहे कुछ भी हो,
अंदर की आग नहीं बुझने दी है।
सो...
मैं जीतकर ही रहुंगा।
और...
आप सभी सनातनी ,ईश्वर भक्त भी मेरे साथ तो हो ही।है ना साथियों ?
तो मैं क्यों और कैसे हारूंगा।
मेरे मकसद में मैं कामयाब ही होकर रहूंगा।
मैं देश को बदलकर ही रख दूंगा।
तो चलो सब मिलकर नवराष्ट्र निर्माण की ओर।
जय हिंद।
वंदे मातरम।
जय जय श्रीकृष्ण।
जय जय श्रीराम।
हर हर महादेव।
हरी हरी: ओम्
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विनोदकुमार महाजन
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