किताबें क्या लिखती है ?

 मनोरोगियों की लिखी किताबें बच्चों को इतिहास कहकर पढ़ाना बन्द हो

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आज बाबू सरस्वती प्रसाद हम से मिलने आए थे।। हमारे बहुत पुराने मित्र। देश दुनिया की बातों में बड़ी रुचि रखते हैं। आज हमने उनसे निजी बात की। हमने कहा कि आपके घर के सामने तो एक बरगद का बहुत बड़ा पेड़ है और आपके घर के पिछवाड़े एक झील है और आपके सारे घर में पानी भरा रहता है और आप लोगों को बहुत कष्ट है और रहने के लिए बहुत थोड़ी सी जगह है और आपका परिवार बड़े कष्ट में है।बड़े दुःख की बात है।मुझे बडी चिन्ता रहती है आजकल। इस पर वे तमतमा गए और उन्होंने कहा कि आप किसी मनोचिकित्सालय  में तुरंत भर्ती होइए या मैं ही ले चलता हूं आपको। लगता है आपका मानसिक संतुलन गड़बड़ा गया है। इस पर मैंने बताया कि नहीं आपके घर में एक बार बाहर से आया एक सब्जी बेचने वाला  1 दिन गया था। वह इस इलाके का नहीं है, विधर्मी हैं और वह बहुत दूर रहता है, पर उस दिन अचानक इस इलाके में आ गया था और वह आपको एक लौकी देने गया था ।आप ने पुकारा तो ठेले से लौकी लेकर आपके घर गया और फिर वह चला गया । वह मुझे आज रोशनाबाद में  मिला था और आज उसने बताया कि आपके घर का क्या हाल है।तो  मुझे बड़ी चिंता हुई ।

इस पर वे और भड़क उठे। उन्होंने कहा: आप इतने बरसों से हमारे मित्र हैं। 50 बार हमारे घर में आए हैं और इस तरह बोल रहे हैं, आप?? निश्चित रूप से आपका मानसिक संतुलन गड़बड़ा गया है। इस घर को आपने स्वयं देखा है ।जहां आप बेरोकटोक आ जा सकते हैं ,जहां आपका भरपूर स्वागत होता है। हमारे परिवार के सारे लोग आपको जानते हैं। आपके परिवार के सारे लोग मुझे जानते हैं । उस घर के विषय में आप कभी एक बार हमारे यहां आए हुए अनजान व्यक्ति का विवरण सुनकर उसके आधार पर हमारे घर की चिंता कर रहे हैं ,चर्चा कर रहे हैं और उसका विवरण बता रहे हैं । कृपा करके उठे और तत्काल मानसिक चिकित्सालय चलें। चिंता की बात है ।आप जैसा मेधावी और विद्वान व्यक्ति इस मन: स्थि,ति में रहे यह मुझे सुहाता नहीं ।मेरी छाती फटी जा रही है ।मुझे निराला जी और राहुल सांकृत्यायन ज्यादा याद आ रहे हैं ।उनकी यही दशा हो गई थी ।मैं नहीं चाहता कि आप उस पर से गुजरे। कृपा  कर चलिए और आप नहीं चलेंगे  तो हम आप को जबरन ले चलेंगे ।।

इस पर मैं ठठा  कर हंसने लगा ।तब  वे भी थोड़े चकित हुए। मैंने कहा,:-  श्रीमान यही फॉर्मूला तो आप लोग भारत के इतिहास के विषय में  लागू करते हैं ।।

आप अच्छी तरह जानते हैं कि भारत के हर राज्य में व्यवस्थित अभिलेख  रखा जाता था।

 भारत के इतिहास के अत्यंत प्रामाणिक ग्रंथ मौजूद हैं। महाभारत है ,वाल्मीकि रामायण है ।सारे पुराण  हैं जो इतिहास का मूल आधार है और यह कुल मिलाकर लाखों पन्नों  की प्रामाणिक first hand सामग्री भारत के प्रत्येक राज्य अभिलेखागार में  विद्यमान है।अत्यंत प्रामाणिक वहां का इतिहास है। इसके विषय में स्वयं विदेशियों ने लिखा है और भारत के लोग भी जानते हैं। आप स्वयं जानते हैं कि भारत के हर राज्य में अभिलेखागार होते थे और  बड़े विस्तार से सारी महत्वपूर्ण घटनाएं सुरक्षित रखी जाती थी और हमारे शासक 1947 ईस्वी तक जो हिंदू राजा रानी हुए, वे बहुत अधिक अध्ययन शील थे और  निरंतर शास्त्रों का और दुनिया का भी अध्ययन करते थे। इतिहास का अध्ययन करते थे ।साहित्य और धर्म शास्त्र का अध्ययन करते थे और अपनी बड़े-बड़े विद्वानों को रख रखा था और उनके यहां विधिवत प्रशस्त अभिलेखागार थे।

 परंतु उनका कोई भी अभिलेख पढ़ने देखने की जगह बाहर से जो डच पुर्तगीज फिरंगी आदि आदि लोग यहां आए दो पैसा कमाने और जो यहां की भाषा नहीं जानते थे ,जिनको ठीक से बोलना नहीं आता था और जिन्होंने लौट के डींग  मारते हुए अपने देश में कुछ सच्ची कुछ झूठी बहुत सी बातें लिखदीं तो आप लोग उसी को भारत का इतिहास मानते हैं ,बताते हैं और लिख कर  बताते हैंऔर इसके बाद आप लोगों को किसी को मानसिक चिकित्सालय में आज तक भर्ती नहीं किया गया ।

अभी तो ऐसे सभी मनो रोगियों की पुस्तकें भारत के विद्यार्थियों को चार चार  पीढ़ियों से इतिहास कह कर पढ़ाई जा रही हैं।

 कृपा कर सबसे पहले तो यह  मांग करिए कि भारत में इतिहास समाजशास्त्र और साहित्य तथा राजनीति शास्त्र एवं अर्थशास्त्र के क्षेत्र में विगत 75 वर्षों से जिन जिन लोगों ने पुस्तकें लिखी हैं और जिन्होंने शिक्षा मंत्रालय और शिक्षा अधिकारी शिक्षा सचिव के रूप में उन पुस्तकों को पाठ्यक्रम में रखवाया है और बेचारे अध्यापकों को  पढ़ने पढ़ाने को विवश किया है, उन सब लोगों को मनोरोगी घोषित  कर उनकी पुस्तकें तत्काल प्रतिबंधित की जाए ।उन्होंने भारत के मेधावी बच्चों को अपने मनोरोग से बहुत बुरी तरह प्रभावित किया है ।उनके चित्त  को अस्थिर और संकीर्ण बनाया है। इसकी क्षतिपूर्ति भी उनमें से जो लोग सक्षम हैं,उनसे वसूली जाए और इन पागलों की किताबें पढ़ना पढ़ाना बंद कीजिए। तब वे बात  को समझें और ठठाकर हंसने लगे।


इतिहास के तथ्यों का उल्लेख हम क्रमशः करेंगे ही।

 परंतु तब तक कुछ बातें तो ध्यान में अवश्य रखें यदि आप थोड़ी सी भी पात्रता इन विषयों में अपनी चाहते हैं तो।

1) संसार भर में अपना इतिहास अपने ही आंतरिक स्रोतों के आधार पर पढ़ाया जाता है।

2) अंग्रेजों के समय से कुछ ऐसा चला कि भारत का इतिहास साधारण किस्म के घुमंतू लोगों  या साधारण सिपाहियों या कंपनी के कर्मचारियों या ईसाई पादरियों की इस अनजान देश में अनजान भाषा में टूटे-फूटे ढंग से समझ कर पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर लिखी गई बातों को इतिहास का आधार मान लिया गया।यह स्थिति दुनिया में अनोखी है।इसके जिम्मेदार भारत के शासक हैं।

3) वे तो  18वीं शताब्दीईसवी  के पहले की दुनिया के विषय में कुछ भी नहीं जानते थे और 18 वीं शताब्दी तक तो वहां शिक्षा भी हजार में एक या दो लोगों को ही प्राप्त थी,  विशेष लोगों को ही। इसलिए उन्हें दुनिया का कुछ ज्ञान नहीं था।

 ऐसे में उनके द्वारा दुनियाभर के बारे में या भारत के बारे में लिखी गई बातें यहां के लोगों से किसी तरह पूछ कर आधा अधूरा इशारे समझ कर लिखा गया है। 

4) aise Mein 1947 ke bad bh beicharon ke dwara likhi Gai Kuchh Gappu Kuchh Isharon Kuchh vidvesh aur irshyaa Se Bhari Hui Mirch Masala mill I Hui kahaniyon ko

ऐसे में1947 के बाद भी उन बेचारों की गप्पों, अटकलों और संस्मरणों के आधार पर इतिहास पढ़ाने वाले और पढ़ाने का प्रबंधन करने वाले तथा पढ़ने वालेतीनों ही श्रेणी के लोग अधम और हीन तथा मन्दबुद्धि माने जाने चाहिए ।

5) अतः जिनमें रत्ती भर स्वाभिमान और सत्यनिष्ठा है उन्हें इन कूड़ेदान को इतिहास की पुस्तक मानना बन्द कर यथा सम्भव आंतरिक साक्ष्यों को जानना चाहिए।

इतिहास लिखते समय अपने ही स्रोतों की छानबीन करनी चाहिए ।

यही संसार का नियम है और भारत में भी यही होना चाहिए ।

पर अंग्रेजों से सत्ता की सौदेबाजी करते समय पार्टी के धड़े ने यह तय किया था कि वे भारतीय स्रोतों की बजाय स्वयं अंग्रेजों द्वारा लिखी  नियोजित गप्प और गढ़ी गई बातों को ही भारत के इतिहास का आधार बनाएंगे।

जो इतिहास के नाम पर केवल कचरा और जहर, झूठ और गप्प, घुमक्कडों के किस्से और भारत द्वेषियों के वक्तव्य पढ़ाए जा रहे हैं।।

इसका उत्तर या इसका प्रतिकार उस कचरे और गप्प और झूठ की निंदा करते बैठना नहीं है।

अपितु  सच्चा इतिहास लिखना ही है।।

 इसके लिए अपने ही इतिहास ग्रंथ यानी महाभारत और रामायण तथा पुराणों का आधार लेकर और बाद में सत्य निष्ठ और संस्कृत के मर्मज्ञ विद्वानों द्वारा लिखे गए ग्रंथों को साथ में साक्षी की तरह प्रयुक्त करना चाहिए।।

प्राचीन भारत का विस्तार बहुत अधिक था और इसलिए यहां कभी कोई विदेशी नहीं आया और ना ही किसी विदेशी को हराने की भारत की वृहत्तर सीमा में कोई आवश्यकता पड़ी।यह सदा स्मरण रखना चाहिए ।

हूण, यवन, म्लेच्छ ,शक, बाह्लीक, दरद,कोई भी विदेशी नहीं हैं।

 सब भारतीय क्षत्रिय हैं जिनमे से कुछ ब्राह्मणों से रहित होकर व्रात्य हो गए।

हूण महान भारतीय क्षत्रिय हैं।उन परम शक्तिशाली हूणों को हराने वाले स्कन्दगुप्त महत्तर और बलवत्तर वीर हुए।हूणजित बहुत बड़ी उपाधि है।पर वह विदेशियों को मार भगाने से कोई संबंध नहीं रखती।

इसी प्रकार शकारि यानी विदेशी को हराने वाला नहीं,अपितु  महा प्रतापी राजा है।।शक भी भारतीय वीर हैं।उन्हें हराने वाले भी भारतीय महावीर हैं। 

अंग्रेज बुद्धि से दरिद्र और कुटिल थे।उनकी नकल करने वाला भारत की विद्या परंपरा का कलंक है।

हमारे किसी प्रामाणिक ग्रन्थ में शक हूण कुषाण कोई विदेशी नहीं कहे गए हैं।

दीन हीन अंग्रेजों की कल्पनाओं की नकल दयनीय है।


भारतीय इतिहास के विषय में यूरोपीयों को प्रमाण मानने की मूढ़ता:1


यूरोपियों को स्वयं अपने ही यूरोपीय अतीत का कोई भी प्रमाणिक ज्ञान नहीं है क्योंकि 19वीं सदी से पहले वहाँ इतिहास लेखन की कोई परंपरा नहीं रही है।  सच तो यह है कि वहाँ विद्या की कोई प्राचीन परंपरा शेष है ही नहीं, जैसा प्रख्यात अध्येता  प्रोफ़ेसर कुसुमलता केडिया जी ने बारंबार सप्रमाण  कहा और बताया  है... 

अतः स्वयं यूरोप के प्राचीन इतिहास का कोई प्रामाणिक ज्ञान यूरोप में नहीं रहा है. 

विश्व के अन्य भूभागों की तो उन्हें 19वीं शताब्दी ईस्वी से पूर्व कोई गहरी और व्यापक जानकारी रही ही नहीं क्योंकि 16वीं शताब्दी ईस्वी से वह दुनिया में केवल इसी तरह खाने कमाने का साधन जुटाने अथवा मौका लगे तो लूटपाट करने के लिए ही निकले थे।  

उस समय उन्हें न तो कोई जिज्ञासा थी और ना ही कोई उनमें अध्ययन की सामर्थ्य थी।  

केवल यूरोप की कंगाली और भुखमरी तथा महामारी से बचकर दूर कहीं जाने और हो सके तो वहाँ से कुछ जोड़ या लूट  कर अपने अपने इलाके में थोड़ा सम्मानित जीवन जीने की जुगाड़ करना ही उनके जीवन का उद्देश्य था और इसके लिए भी उन्हें अपने स्थानीय राजाओं को कमीशन देना होता था।  जिसके प्रमाण भरे पड़े हैं।


(क्रमशः)

भारतीय इतिहास के विषय में यूरोपीयों को प्रमाण मानने की मूर्खता:2


तथाकथित अध्ययन जो  शुरू हुआ वह 19वीं शताब्दी में ही शुरू हुआ है।  इसलिए विश्व के अतीत के इतिहास के विषय में कोई भी यूरोपीय विद्वान कुछ भी कहे तो वह अटकल पच्चू मात्र है क्योंकि वह उस विषय में अधिकारी है ही नहीं। 

यूरोप के 15 सौ वर्षों का वे  कुछ कुछ अनुमान लगाते हैं परंतु विश्व के विषय में अतीत का कोई भी ज्ञान कर पाना उनकी सामर्थ्य से बाहर की चीज है।  

भारत में राजाओं के संपर्क में आने के बाद उन्हें अपने इस भीषण अज्ञान और इतिहास के अभाव का गहरा बोध हुआ क्योंकि यहाँ उन्होंने पाया कि इतिहास का विस्तृत ज्ञान भारत के लोगों को है।  

तब उनमें से कुछ ने भारतीयों से पूछ पूछ कर यहाँ के राजाओं की कृपा पूर्ण अनुमति प्राप्त कर कुछ तथ्य जुटाने की मेहनत की क्योंकि न तो वे यहाँ की भाषा जानते थे और ना ही यहाँ के लोगों का उच्चारण पूरी तरह उन्हें समझ में आता था। 

स्पष्ट है कि उन्होंने जो कुछ भी बहुत मेहनत के साथ संकलित किया वह आनुषंगिक और सेकेंडरी स्रोत है प्राथमिक नहीं।  अतः जो कोई नव शिक्षित  भारतीय, भारत के अतीत की यानी 16वीं शताब्दी  ईस्वी से पहले की किसी भी घटना पर किसी यूरोपीय को उद्धृत करता है या उसके लिखे को आधार बनाता है तो इससे वह भारतीय स्वयं के विद्या विहीन होने का ही प्रमाण देता है।  

वह अविचारणीय विषय पर समय नष्ट कर रहा होता है।  क्योंकि यह तो ऐसा ही है जैसे आइन्स्टाइन के वैज्ञानिक ज्ञान पर नौवीं कक्षा का कोई भारतीय  ग्रामीण छात्र कुछ लिखे और दावा करे कि सत्य यही है, ना कि उस विषय के शीर्ष वैज्ञानिकों के कथन सत्य हैं।   

भारत के विषय में यूरोपीय लोगों के कथन ठीक इसी प्रकार के हैं जैसे शीर्ष विज्ञान के विषय में भारत के किसी गाँव का नौवीं कक्षा का विद्यार्थी कुछ कहे।  

ज्ञान के निकष सार्वभौम होते हैं और भारत के लोगों को उस ज्ञान की सामर्थ्य से रहित मानकर चलना, जिस ज्ञान के वे लाखों बरसों से विशेषज्ञ हैं, और नौसिखुआ परदेशी को उसमे समर्थ मान लेना, यह ऐसा मानने वाले की बौद्धिक दयनीयता  ही दर्शाता है।।

✍🏻प्रो रामेश्वर मिश्र पंकज जी की पोस्टों से संग्रहीत

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