दिव्यप्रेम
*दिव्य प्रेम*
दिव्य प्रेम का अमृत स्वर्ग से निर्माण होता है और सभी देवताओं के ह्रदय में इसका वास होता है
दिव्य प्रेम से ही दिव्य अनुभूति
अथवा दिव्यत्व की प्राप्ति होती है
नफरत का जहर नरक से निर्माण होता है और इसका वास सभी राक्षसी वृत्ति के व्यक्तीयों में होता है
दिव्य प्रेम की अनुभूति सभी सजीवों को समझती है
इसिलिए सिंह,बाघ अथवा जहरीले साँप भी सिध्दपुरूषों के सानिध्य में आराम से,आनंद से और भेदभाव रहीत भाव से रहते है
मगर आसुरीक संपत्ति वालों को जो नफरत का जहर बाँटते है,उन्हें दिव्य प्रेम से ,दिव्यत्व से कुछ लेना देना नही होता है
इसीलिए कंस,दुर्योधन जैसे दुरात्माएं भगवान श्रीकृष्ण के सानिध्य में रहकर भी श्रीकृष्ण के दिव्यत्व को नही समझ सके
और गौमाता को भगवान श्रीकृष्ण के दिव्य प्रेम की अनुभूति निरंतर मिलती रही,और गौमाता भी बडे आनंद से सदैव भगवान श्रीकृष्ण के साथ रही
*आज भी यह दोनों विरूद्ध शक्तियों का संघर्ष जारी है*
सृष्टि के आरंभ से सृष्टि के अंत तक ऐसा संघर्ष जारी रहेगा
हरी ओम्
*विनोदकुमार महाजन*
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