चलो मंजील की ओर
संगठन बनाना, बढाना आसान काम नही है।
( ले : - २०४० )
विनोदकुमार महाजन
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समय के अनुसार,बहुत से सामाजिक, आध्यात्मिक, राजकीय संगठन बनते है।
मगर उसमें कितने संगठन अपने अंतीम मंजील तक पहुंचते है ?
उद्दिष्ट पूर्ती तक कितने संगठन आगे बढते है ?
यह महत्वपूर्ण विषय है।
आज अनेक हिंदुत्ववादी संगठन भी बन रहे है।
मगर उनमें से सक्रिय कितने है ?
उद्दिष्ट पूर्ती तक कितने पहुंचे है ?
यह भी संशोधन का विषय है।
विशिष्ट उद्दीष्ट लेकर आगे बढेंगे,
शक्तिशाली रणनीती बनाकर,
पक्का " बेसमेंट " बनायेंगे तो
निश्चित रूप से " बिल्डिंग " शक्तिशाली ही बनेगी।
अनेक विपदाओं का,आपदाओं का सामना करते करते...
" पक्की नींव " बनाकर आगे बढेंगे तो...
कम समय में उद्दिष्ट पुर्ती तक निश्चित रूप से पहुंचेंगे।
संगठन सक्रिय करने के लिए धन की जरूरत तो होती है।
मगर इससे भी जादा महत्वपूर्ण होता है,
संपूर्ण समर्पित कार्यकर्तांओं की फौज बनाना और उसे आगे बढाना।
चिते जैसी स्फुर्ती, चुस्ती,गती लेकर...
" विशिष्ट लक्ष " की ओर बढते रहेंगे तो....?
लक्ष हासिल होकर ही रहेगा।
और संगठन के लिए अगर चिते जैसे पदाधिकारी,कार्यकर्ता नही मिलेंगे ....
मरे हुए अथवा मुर्दाड मन से कार्य करनेवाले साथी,सहयोगी मिलेंगे तो....?
कार्य आगे बढना,कार्य को अपेक्षित गती मिलना असंभव है।
उद्दिष्ट अगर पवित्र है,ईश्वरी संकेत भी शुभ मिल रहे है,अचुक निर्णय क्षमता ,पक्का आत्मविश्वास और निरंतर अथक प्रयास द्वारा....
" हमारे, हम सभी के दिव्य मंजील तक " पहुंचने में हमें आसान हो जायेगा।
रूकावटें, बाधाएं आयेगी।जरूर आयेगी।और आनी भी चाहिए।क्योंकी इससे ही अनुभव मिलता है।और उसी अनुभव के बल पर " यशस्वीता " का रास्ता आसान हो जाता है।
अनेक दिनों से मैं...
" वैश्विक संगठन " बनाने के कोशीश में लगातार प्रयासरत हुं।मगर अनेक बाधाएं, विपदा,आपदाओं का सामना करते करते...
अब
" विशिष्ठ लक्ष और निर्धारित लक्ष " सामने दिखाई दे रहा है।
अनेक संगी,साथी, दोस्त मिलें।
अनेक साथ छोडकर चले गये।
कुछ दोस्त साथ भी रहे।
जो " अपेक्षित परिणाम " मैं चाहता हुं,उसमें देरी जरूर हो रही है।
मगर " लक्ष निर्धारित " है और
" पक्का रास्ता " भी तय है।
कम समय में " यश " खिंचकर लाने में पिछले अनुभव जरूर उपयोगी होती है।
इतिहास में अनेक महापुरुष हो गये।सत्य की लडाई भी लडे।
मगर उसमें कितने प्रतिशत यशस्वी हो गये ?,अथवा कितने महापुरूषों को हार का सामना करना पडा ?
यह विषय भी चिंतनीय है।
जो जीते उन्होंने कौनसी रणनीती अपनाई ?
और जो हारे,उनके हार की वजह क्या थी ?
इसपर चिंतन, मंथन, अवलोकन होना भी अत्यावश्यक है।
दैव,नशीब, कर्म भी अगर आपको विपदाओं के रूप में बाधित कर रहा है तो...
इसपर भी विजय प्राप्त करनी होगी।और सद्गुरू कृपा से अगर ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है तो...
निश्चित रूप से यशस्वी होना तय है।
नशीब,प्रारब्ध, कर्मगति इस विषय पर वैचारिक मतभेद जरूर हो भी सकते है।
और बुध्दीभेद द्वारा इसमें व्यत्यय आने की संभावना भी है तो भी...
सभी मनभेद, मतभेद, बुध्दीभेद, तर्क, कुतर्क, वितर्क,मनोविश्लेषण को सदैव दूर रखकर,
आध्यात्मिक शक्ति द्वारा यथोचित मंजिल की ओर,ध्येय की ओर नितदिन आगे बढते रहेंगे तो ईश्वर भी सहायभूत होकर, यशस्वी होने का आशिर्वाद और वरदहस्त भी प्रदान करेगा।
तो ऐसे प्रेरित व्यक्तियों को कौन और कैसे रोकेगा ?
एक एक कदम ,एक एक पल,हर पल,निरंतर, नितदिन....
" दिव्यत्व " की ओर,
" दिव्य मंजील " की ओर बढता ही जायेगा।
तो चलो आगे बढते ही रहते है।
आत्मविश्वास के साथ।
इस विषय पर लेख लिखने के लिए मुझे प्रेरणा देनेवाली डाँ.रश्मी शुक्ला जी का मैं आत्मा से आभार व्यक्त करता हुं।
हरी ओम्
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