सिध्दपुरूष

 बडे विचित्र होते है,सिध्दपुरूष


माँ का प्रेम अपने बच्चों के प्रती निरंतर पवित्र ही होता है।

ठीक इसी प्रकार से सत्पुरुषों का,सिध्दपुरूषों का समाज के प्रती प्रेम निरंतर पवित्र ही होता है।


माँ जिस प्रकार से अपने बच्चों के अखंड कल्याण के लिए प्रेम भी करती है,कभी कभी डांटती भी है,गाली भी देती है और जरूरत पडनेपर उस बच्चे को डंडे से मारती भी है।कभी कभी बच्चों के हित के लिए कठोर शब्दों से प्रहार भी करती है।


ठीक इसी प्रकार से सत्पुरुष ,सिध्दपुरूष समाज हित के लिए प्रेम की भाषा भी बोलते है,गाली भी देते है,कठोर शब्दों से प्रहार भी करते है अथवा डंडे से किसी को मारते भी है तो उनका उद्देश्य भी समाज हित के प्रती माँ जैसा ही होता है।


सिध्दपुरूषों को समझना तो बडा कठीण होता है।कुछ सिध्दपुरूष तो समाज से दुरी बनाए रखने के लिए जानबूझकर पागल भी बन जाते है,अथवा अखंड ब्रम्ह समाधी में रहते हुए,अनेक बार पागलों जैसी भी हरकतें करते रहते है।


बडा विचित्र खेल है यह।

सिध्दपुरूषों के आशीर्वाद से अनेकों के नशीब बनते है तो,

उनके श्राप से जीवन उजाड भी जाते है।

इसीलिए पुण्यवान पुरूषों का आशिर्वाद लेना है या श्राप यह तो हर एक के हाथ में ही है।


अनेक सिध्दपुरूष तो समाज में गुप्त रूप से भी भ्रमण करते रहते है।क्योंकि मनुष्यों के संपर्क से उनकी ईश्वर के प्रति उनकी तंद्री भंग ना हो।


इसीलिए सिध्दपुरूषों को समझना बडा कठीण काम है।


हरी ओम्


विनोदकुमार महाजन

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