तो मुझे गरीब ही रहने दो...
तो मुझे गरीबी ही चाहिए ! ! !
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ऐसा कहते है की,अनेक बार धन आने के बाद आदमी की आँखें चकाचौंध हो जाती है।और अनेक व्यक्तियों के दिमाग में हवा भर जाती है,और फिर हवा में बाते होने लगती है।
और मैं,मेरा,मैंने किया ऐसी अहंकारी भाषा आरंभ हो जाती है।इसेही उन्माद कहते है।
चने का पौधा आपने देखा है ना ? तो यह पौधा भी पेड बन जाता है।और उसकी शाखा पर बैठकर वह आदमी बडी बडी अहंकारी बाते करता है।तथा दुसरों को तुच्छ समझता रहता है।
मगर धन चाहे कितना भी आये,शालीन व्यक्ति न कभी अहंकार करता है,ना दुसरों को तुच्छ समझता है।और ना ही उसे कभी अहंकार होता है।
उसका सुसंस्कारित मन सदैव जमीन पर ही रहता है और जमीनी बाते ही करता है।
इसीलिए चाहे कितना भी बडा पद,संम्मान, इज्ज़त, प्रतिष्ठा बढें तो भी अहंकार शून्य रहना ही महत्वपूर्ण होता है।
यह सब माया का खेला है।इसमें जो अटकता है वह निश्चित भटकता है।
इसिलए अमीरी हो या गरीबी, सुख हो या दुख,स्थितप्रज्ञ रहकर, ईश्वरी शक्ति से एकरूप होकर, सामाजिक कार्य करना,मानवता धर्म निभाना यह बडा कठिन होता है।
यह धन की माया देखकर भले भलों की आँखें चकाचौंध होती है।
सिर्फ सिध्दपुरूष,महत्मा,त्यागी ही सम - विषम परिस्थितियों में स्थितप्रज्ञ रह सकता है।
मोह माया का झंजट बडा विचित्र होता है।इसीसे ही दुसरों को तुच्छ लेखना,दुसरोँ की किमत न करना,उसे सदैव अपमानित करना ऐसा सिलसिला आरंभ हो जाता है।
दिन दुखितों के प्रती,अनाथों के प्रती,धनहीनों के प्रती प्रेम - वात्सल्य रहना,उसके आँसु पोंछना,उसको कठिन समय में सहारा देना,अनाथ - निरिधार - निराश्रितों के अश्रु पोंछना सचमुच में यह सचमुच में ईश्वरीय गुणों से संबंधित होता है।चाहे माया का खेला कितना भी हो,हमेशा दिन दुखितों के अश्रु पोंछने से,पशुपक्षियों पर प्रेम करने से ही,अहंकार शून्य रहने से ही ईश्वरी कृपा होती है तथा सदोदित ईश्वरी सानिध्य भी मिलता है।
और ईश्वरी सानिध्य प्राप्त होना ही सबसे बडा धन है।
राजा चाहे कितना भी बडा हो,अथवा आदमी कितना भी धनवान हो,
दुखितों के झोपडी में जाकर,गरीबों की झोपडी में जाकर, उसकी तन - मन - धन से सेवा करना,उसको मानसिक, आर्थिक आधार देना ही,सच्चे इंन्सान होने का प्रमाण होता है।
इसीलिए पहले कुछ राजा रूप बदल करके अपने राज्य में अनेक बार भ्रमण करते थे और गरीब की झोपड़ी में जाकर उसकी गुप्त रूप से सेवा भी करते थे।
और समय कौनसा भी हो,राजा - लोकप्रतिनिधि ठीक इसी प्रकार का होना ही समाज हीत के लिए उचित होता है।
मगर इसके लिए दोनों तरफ से भाव शुध्द होना जरूरी है।सुसंस्कारित मन से कृतज्ञ रहना ही उच्च कोटि के आनंद का साधन रहता है।
और ईश्वर भी हमेशा ऐसे ही लोगों की सदैव सहायता करता है।
उच्च कोटि का भाव,श्रद्धा, भक्ति, प्रेम, आत्मियता हमारे अंदर है तो भाव का भूका ईश्वर भी हमारे झोपड़ी में भी गुप्त रूप से सेवा करने को आता ही है।और विशेष यह होता है की,ईश्वर साथ में रहता है यह समझने भी नही देता है।
इसीलिए हमेशा कृतज्ञ रहना और ईश्वर की शरण में रहना ही मनुष्य जन्म का उद्दीष्ट है।
हम अनेक बार कृतघ्न लोग,व्यक्ति, भी समाज में देखते है।इसीलिए ऐसे कृतघ्न लोगों से भी हमेशा सावधान रहना चाहिए तथा उनसे दूरी बनाई रखनी चाहिए।नही तो पछताना पडता है।
इसीलिए सद्गुरु भी कठोर परीक्षा किए बगैर कृपा नही करते है।अथवा ईश्वर प्राप्ति भी सहजसाध्य नही है।
मन चंगा तो कठौती में गंगा।
ऐसी भक्ति ही ईश्वर को प्रिय होती है।
मोहमाया, धनदौलत में अटक कर दुसरों को पिडा,उपद्रव देना और भक्ति का ढोंग करना ईश्वर को कभी पसंद नही आता है।
इसीलिए हमें क्या पसंद आता है
इससे बेहतर यह होता है की,
ईश्वर को क्या पसंद आता है।
और इसिके अनुसार हम आचरण करेंगे तो निश्चित रूप से ईश्वर भी हमारी सेवा करने के लिए झोपड़ी में भी दौडा दौडा चला आयेगा।
मैं तो ईश्वर को हमेशा यही प्रार्थना करता हुं की,
हे प्रभो,अगर मुझे राजऐश्वर्य की प्राप्ति हो जाती है और अगर इसी द्वारा मुझे अहंकार होता है
तो....
हे मेरे भगवान, मुझे अमीरी के बजाए गरीब ही रहने दे।
क्योंकि धन से दरीद्र होना कोई विशेष बात नही है।मगर मन से दरीद्र होना यह भयंकर बुरी बात है।
इसीलिए धन से चाहे अमीर हो या गरीब, मन से सदैव अमीर ही रहना चाहिए।
और इसीलिए समाज में भी धन से अमीर होनेवालों से भी मन के अमीर रहनेवालों की ही इज्जत होती है,प्रतिष्ठा होती है,नाम होता है।
इसीलिए चाहे कितना भी बडा नाम,पैसा,प्रतिष्ठा, इज्ज़त हो...
आखिर मन का अमीर आदमी ही पूजनीय होता है।
हरी ओम्
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विनोदकुमार महाजन
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