डाकिया
डाकिया डाक लाया।
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बचपन!!!
कितना सुंदर, लाजवाब, बेहतरीन, आनंददायी, मजेदार था ना?
मेरा,आपका सभी का।वह रिश्ते नातों का प्यार।अनेक त्योहारों की बहार।वह आंगन में खेले जानेवाले खेल।वह मस्ती।वह खुशी से झुमना,नाचना, गाना।
पडोस के लोग भी घर के ही सदस्य जैसे।
प्यार ही प्यार।खुशियां ही खुशियां।
कुवें में तैरना,गुल्ली डंडा, कबड्डी, तिरकामटा,लगोर।
क्या बचपन भी था।पुछो मत।
छुट्टियों के दिन सभी रिश्ते नाते आते थे।प्यार बाँटते थे।प्यार देते थे।प्यार लेते थे।
और जब रिश्तेदार छुट्टियां मनाने के बाद वापिस अपने घर,गाँव जाते थे,तब...?
बेसब्री से डाकिया का इंतजार।रिश्तेदारों की चिट्ठी का बेसब्री से इंतजार।
कब डाकिया आयेगा, कब चिट्ठी लायेगा।कब मैं चिट्ठी पडूंगा, और आनंदित बन जाउंगा।
कितना बेहतरीन, आनंदी जीवन था न वह भी?
खत का इंतजार, चिट्ठी का इंतजार।डाकिया का इंतजार।
और अब...?
डाकिया कि जगह फेसबुक, व्हाट्सएप ने ले ली।वह डाकिया का इंतजार, वह प्यार, रिश्ते, पडोसन का प्यार?
सब समाप्त!!!
न आना,न कहाँ जाना।फ्लैट सिस्टम में अपने अपने घरों में दरवाजे बंद करके कैद होना।
मौन,मजबूर, हताश।
और डाकिया?
आता है कभी कभी पार्सल, रजिस्टर लेकर।मगर उसका भी इंतजार खतम।
वह मस्ती से मस्त होकर नाचना, घुमना बंद।
व्हाट्सएप, फेसबुक पर एक सेकेंड में फटाक से हजारों मेसेज।
क्या यही जीवन हो गया?
क्या जीवन का आनंद समाप्त हो गया?क्या रिश्ते नाते भी केवल स्वार्थ और पैसों से ही मतलब रखने वाले हो गए?
घोर कलियुग आ गया।
कलियुग ने पूरा सत्यानाश कर दिया।
सारा का सारा खेल बिगाड़ दिया।
क्या जमाना भी आ गया,यारों क्या जमाना भी आ गया।
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-- विनोदकुमार महाजन,
पत्रकार, पुणे।
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