स्थितप्रज्ञ!!!
सुख और दुख तो संचित कर्म,याने की प्रारब्ध गती से प्राप्त होते है।जैसा कर्म वैसा फल।इस सुख दुख को पार करके,स्थितप्रज्ञ होना बहुत ही कठीण होता है।चंचल मन हमेशा सैरभैर रहता है।सुख और दुख को समसमान दृष्टी से देखना,विचलीत न होकर,शांत रहकर ही इसका अनुभव किया जाता है।कभी कभी महासिध्द अथवा सिध्द योगी भी मन की भ्रम से दूर दूर तक भटकते रहते है।और कुछ देर बाद फिर से मन को नियंत्रीत करते है।
मन चिज ही है बडी विचित्र।कभी दिल्ली में जाता है तो दूसरे ही पल अमरीका की भी सैर करता है।इसे नियंत्रीत कैसे करें?
आसान है।आँखे बंद करो अथवा चालु रखो।आज्ञाचक्र में ओमकार देखने से और कानों में इसका दिव्य ध्वनी सुनने से धिरे धिरे विचित्र मन नियंत्रीत हो जाता है।और काम करते समय,उठते बैठते भी,दिव्य समाधी अवस्था का अनुभव होने लगता है।यही समाधी है।धिरे धिरे इसी तरह से स्थितप्रज्ञता की भी अनुभुती मिलती है।निरंतर प्रयास और अभ्यास से,अनुभुती का दिव्यत्व महसुस होने लगता है।
प्रयास करके तो देखो।मौन और शांत होकर,एकाग्रता से अभ्यास करने में क्या हर्ज है?पैसा थोडा ही लगता है?
निरंतर अंदर झाकनें से "सो अहम्"जागृती तथा दिव्यत्व की प्रचीती महसुस होने लगती है।
इसिलीए सनातन में ओमकार का बहुत बडा स्थान है।
हरी ओम।
*विनोदकुमार महाजन।
मन चिज ही है बडी विचित्र।कभी दिल्ली में जाता है तो दूसरे ही पल अमरीका की भी सैर करता है।इसे नियंत्रीत कैसे करें?
आसान है।आँखे बंद करो अथवा चालु रखो।आज्ञाचक्र में ओमकार देखने से और कानों में इसका दिव्य ध्वनी सुनने से धिरे धिरे विचित्र मन नियंत्रीत हो जाता है।और काम करते समय,उठते बैठते भी,दिव्य समाधी अवस्था का अनुभव होने लगता है।यही समाधी है।धिरे धिरे इसी तरह से स्थितप्रज्ञता की भी अनुभुती मिलती है।निरंतर प्रयास और अभ्यास से,अनुभुती का दिव्यत्व महसुस होने लगता है।
प्रयास करके तो देखो।मौन और शांत होकर,एकाग्रता से अभ्यास करने में क्या हर्ज है?पैसा थोडा ही लगता है?
निरंतर अंदर झाकनें से "सो अहम्"जागृती तथा दिव्यत्व की प्रचीती महसुस होने लगती है।
इसिलीए सनातन में ओमकार का बहुत बडा स्थान है।
हरी ओम।
*विनोदकुमार महाजन।
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