धैर्य और शांती!!!

धैर्य और शांती यह गुण बहुत ही सामर्थ्यवान होते है।रामजी ने,राजऐश्वर्य का त्याग करके सिध्दांतो की जीत के लिए बनवास अपनाया।सीता का हरण होने के बावजुद भी धैर्य और शांती से,रावण वध के लिए बडे संयम से,चौदा सालोंका इंतजार किया।चौदा सोलों का बनवास और इंतजार वह भी सीता के बिना,कितना भयंकर और कष्टदायक होगा?
परशुराम अवतार में माँ का सिर काटने का"प्रारब्ध"खुद राम को भी दुख के रुप में भुगतना पडा।तो हम"सामान्य"जनों  की क्या बात?
व्यंकटेश्वर भगवान के साथ माता महालक्ष्मी जी के झगडे हो गए और माता वहां से भागकर अकेली कोल्हापुर में आ बसी।खुद भगवान को भी पद्मावती के साथ दुसरी शादी करनी पडी।और वह भी कुबेर जी से ,शादी के लिए कर्जा लेकर।
कमाल का है भगवान,अगाध है उसकी लिला और कमाल की माया।सृष्टी रचीयेता होकर भी,कमाल की एक्टींग का भी रोल निभाता है।
अनंत ब्रम्ह है,अनंत ब्रम्हांड है।अनंत सागर।अमृत का अनंत सागर।उस सागर के हम सभी"निमीत्य मात्र"एक बुंद।मगर एक बुंद भी....
अमृत सागर के सभी गुणों से भरपूर।जैसे खारे सागर का हर बुंद खारा,मिठे समुद्र के सागर का हर बुंद मिठा।ईश्वरी गुणसंपन्नता का हर बुंद।और.....असुरी गुणसंपन्न व्यक्ती भी ठिक इसी तरह से,विष के सागर का एक बुंद,मगर दुर्गुणी।
तो बात है रामजी के बनवास की।मेरे अनेक लेख अनेक महात्माओं को,और सभी पुण्यात्माओं को पसंद आते है।मुझे सुख दुख के बारे में चर्चा करते है।
मैं एक सिदासादा,भोलाभाला ,अज्ञान जीव तो सभी का समाधान तो नही कर सकता।मगर प्रयत्न तो जरुर करूंगा।
एक उदाहरण देता हूं।एक बहुत बडे महात्मा थे।कठोर गायत्री उपासक।"विश्व-परीवर्तन"की, उन्होने ठाण ली थी।और बहुत बडी कठोर तपस्या की थी।उन्होनो।माता गायत्री के,गायत्री मंत्र उन्होने चौबिस पुरश्चरण किया था।चौबिस लक्ष जाप का एक पुरश्चरण।हवन का मंत्रजाप अलग।
फिर भी उन्हे"अपेक्षीत सफलता"नही मिल रही थी।चौबिस पुरश्चरण करने के बाद उन्होने,माँ गायत्री को बडे निराश होकर कहा।"माते इतनी तपश्चर्या"के बाद भी तुने कार्यसिध्दी का आशिर्वाद नही दिया।और उन्होने निराश होकर जंगल में जाकर एकांत में रहकर,जीवन गुजारने का संकल्प किया।
संयोग से कुछ दिनों बाद माता गायत्री उनके सामने प्रत्यक्ष प्रकट होकर बोली,"तेरे हर मनोरथ पुरा होने का आशिर्वाद देने मैं आई हूं,बोल तुझे क्या चाहिए"।
तब सत्य वचनी महात्मा बोले,"माते अब देर हो चुकी है।मैने प्रण किया है।मैं मेरा प्रण कभी भी नही तोडता।माते,अब मुझे कुछ भी नही चाहिए।मगर मुझे सिर्फ इतना बता दे,की...
जब मैं तेरा बहुत व्याकुलता से इंतजार कर रहा था...तब....तु....
क्यों नही आई?"
माँ बोली,"तेरे पिछले जन्मो के पापों के पहाड इतने बडे थे,की मैं चाहकर भी,तुझे दर्शन और  आशीर्वाद नही दे सकती थी।"
सभी अद्भुत!!!!!!!
रामदास स्वामी।हनुमान जी का अवतार।महान त्यागी,तपस्वी।फिर भी राजे शिवाजी को देहली जीतने के लिए,कुछ नही कर सके।
उन दोनों की शुध्द और पवित्र आत्माओं में,थोडासा परकाया प्रवेश करके देख लो।उनके अंदर की पिडा जरुर महसुस होगी।
फिर भी हमें हबकुछ प्रारब्ध पर छोडकर, हताश और निराश होकर प्रयत्नवाद नही छोडना चाहिए।
समर्थ रामदास स्वामी भी कभी कभी रामजी को कहते थे,"तुझा दास मी व्यर्थ जन्मास आलो।"ऐसा कहने के बावजूद भी,उन्होने भी प्रयत्नवाद को नही छोडा था।
अल्पबुध्दी से कुछ ट-फ लिख दिया।कुछ गलती हो तो क्षमस्व।
हरी ओम।
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---विनोदकुमार महाजन।

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