धर्म और अधर्म...।

जो पवित्र प्रेम सिखाता है वही धर्म है।
जो प्राणियों में सद्भाव देखता है वही धर्म है।
जहाँ प्रेम, भाईचारा, इंन्सानियत की पूजा होती है वही धर्म है।
जहाँ पावित्र्य, सदाचार, संस्कार है वही धर्म है।
सद्गुणों की खाण यही धर्म है।
जहाँ ईश्वरी सिध्दांत सिखाए जाते है,
वही धर्म है।
जहाँ पेड,जंगल, कुदरत पर प्रेम करने को सिखाया जाता है,
वही धर्म है।
जहाँ सभी का कुशल, मंगल, आबादी की प्रार्थना होती है,
वही धर्म है।

और...अधर्म...???

जो नफरत, बैर सिखाता है वही अधर्म है।
जहाँ पशुपक्षियों की हत्या होती है,इंन्सानियत का गला घोटा जाता है,
वही अधर्म है।
जहाँ दुसरोँ की संस्कृति तबाह करने की शिक्षा दी जाती है वही अधर्म है।
जहाँ कपट,क्रोर्य,धोकाधड़ी सिखाई जाती है,
वही अधर्म है।
जहाँ भयंकर अती दुर्गुण सिखाए जाते है,
वही अधर्म है।
जहाँ हैवानियत है,
वही अधर्म है।
जहाँ राक्षसी गुणों का स्वीकार करके तबाही, बरबादी, हाहाकार सिखाया जाता है,
वही अधर्म है।

जहाँ धर्म के नाम पर अधर्म, पाप बढाया जाता है,
यही अधर्म है।

ऐसे अधर्म का,पाप का,और पाप के कलंक का,
संपूर्ण जगत से,संपूर्ण रूप से,नाश होना ही चाहिए।
जी हाँ,फिर से दोहराता हुं,
नाश होना ही चाहिए।

हरी ओम।
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--  विनोदकुमार महाजन।

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