धन के बिना कार्य अधुरा ! ! !

कार्य चाहे कौनसा भी हो,
छोटा हो या बडा हो,
आध्यात्मिक हो या धार्मिक,
सामाजिक हो या राजनीतिक,
धन तो लगता ही है।
इसिलिए कार्य कौनसा भी हो-धन के बिना अधुरा ही होता है।
धन भी चाहिए सन्मार्ग का ।
दारू-मटका-गुटखा का ठेला निकालकर, लोगों का जीवन उध्दस्त करके पाप की माया से अगर कार्य बढता है...तो बेहतर होगा,कोई भी कार्य या संगठन भी ना बढें।
इसिलए संगठन चलाने के लिए सन्मार्ग का ही धन चाहिए।
और एक महत्त्वपूर्ण बात यह है की,कभी किसी को माँगना भी नही है।अगर हमारा मित्र अगर सच्चे दिल से प्रेम करनेवाला है,और अब्जाधिश भी है तो भी उसको भी कुछ माँगना नही है।
अगर होगी भगवान की इच्छा, अगर होगी माता महालक्ष्मी की कृपा तो कार्य सफल बनके ही रहेगा।
और किसिको कुछ माँगे बिना ही कार्य सफल बनकर रहेगा।
आखिर यह भी तो सिध्दांतों की ही बात है।
इसिलए धन के पिछे,सुखों के पिछे भागना नही चाहिए।और अगर धन ही हमारे पिछे भागे,तो उन्मत्त अहंकारी भी नही होना चाहिए।
शालीनता, सद्वविचार,अहंकार शून्यता और विनम्र सेवाभाव से ही...
कार्य बढाना चाहिए।
और अगर किसिका मित्र ही 
खुद यक्ष बने तो..?
धन के भंडार का रक्षक धन के कोठार में हमें प्रवेशद्वार से अंदर जाने की सहर्ष अनुमति तो देगा ही ना ?
और अगर धन के कोठार में हम गए और खुद खजीनदार कुबेर देव भी हमारा नजदिकी मित्र है तो..?
तो सहर्ष हमें धन लेने देगा ही ना ?
और खुद माता महालक्ष्मी की हमपर केवल कृपा ही नही खुद माता ही हमारी माँ ही है तो...?
तो चिंता किस बात की ?
इसिलए कार्यसफलता के लिए या कोई भी संगठन चलाने के लिए, सचमुच में धन की जरूरत होती ही है,वह धन खुद चलकर हमारे घर आयेगा ही आयेगा।
इसिलए मस्त होकर,खुशी से,आनंद से,हँसते हुए,भगवान की शरण में जाकर, कुछ भी चिंता किए बगैर कार्यसफलता की ओर...
एक एक कदम आगे हरदिन बढाना ही होगा।
अगर भगवान के प्रती हमारा प्रेम,विश्वास, श्रध्दा संपूर्ण है तो,जीवन संपूर्ण समर्पित है तो
..एक दिन कार्य सफल होके ही रहेगा।
चाहे आये कितने भी तूफान, या आंधियां, या फिर पार करने पडे संकटों के अनेक जहरभरे सागर,
या कितनी भी हो नशिब में चुनौतियाँ या कठिनाईयां, या फिर 
सामने हो कितनी भी भयंकर आग,या अनेक जहरीले साँप...
अगर होगी भगवान की कृपा..
तो..?
कार्य सफल बनके ही रहेगा।
और अगर कार्य सफल नही भी हुवा तो,
अपने ही धून में,अपनी ही मस्तीमें...
मौन और शांत होकर,एकांत में जाकर,
ईश्वरी चिंतन में...
आनंद से जीवन बिताना ही चाहिए।
इसे ही स्थितप्रज्ञ कहते है।
सुख हो या दुख,
आनंद से प्रभु का चिंतन करके,
सिध्दसमाधी में 
जीवन जिने का मजा भी कुछ और ही है।
चाहे सफलता मिले ना मिले,
कोई फर्क नही पडता।
बात रही पापों के हाहा:कार की,उसमें नितदिन जलते रहने की,उसके भयंकर,असह्य, नरकयातनाओं की,
भयंकर उन्मादी लोगों के असह्य आतंक की...
तो भी जिस भगवान ने सृष्टि का निर्माण किया वह प्रभु समर्थ है,
सृष्टिसंतुलन के लिए ऐसे उन्मादियों का चार दिनों का खेल समाप्त करने के लिए।
तो हम चिंता क्यों करें ???

हरी ओम।

( लेख का सारांश, गर्भीत अर्थ,जिसे समझ में आया उन सभी का आभार, नही समझ में आया उन सभी का भी आभार।
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--  विनोदकुमार महाजन।

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