जब सद्गुरू की कृपा होती है।

मनुष्य देह का सर्वोच्च सार्थक केवल और केवल सद्गुरु कृपा ही होता है।यही जीवन का अंतिम सत्य और अंतिम साध्य भी है।
परम सद्गुरु कृपा से उस व्यक्ति का जीवन धन्य हो जाता है।
और नरदेह का उद्देश्य भी यही है।
चौ-याशी लक्ष योनी अज्ञान में भटककर जब आत्मा मनुष्य योनी में प्रवेश करता है,तब अंतिम खोज तथा मनुष्य जन्म का अंतिम उद्देश्य प्राप्ति में लग जाता है।
और इसीलिए सद्गुरु की आवश्यकता होती है।
जब सद्गुरु कृपा होती है तो उस व्यक्ति को आत्मज्ञान, ब्रम्हज्ञान भी प्राप्त होता है।और वही पवित्र आत्मा ईश्वरी शक्ती से एकरुप हो जाता है।
यही आत्मा परमात्मा का मिलन है।
और यही जीवन की उच्च स्थिति अथवा समाधी अवस्था भी होती है।ऐसी स्थिति में वह पावन आत्मा स्थितप्रज्ञ बन जाता है।
सुखदुख के आगे निकल जाता है।और जीवन का केवल एक ही मकसद रहता है,ईश्वरी कार्य।और ईश्वरी सिध्दांतों की ,मानवता की जीत,और हैवानियत की हार।
मगर इसिमें वह जीवात्मा अटकता नही है।फिर भी ईश्वरी सिध्दांतों की जीत के लिए, लगातार कोशिश में रहता है।सुखदुख,यशअपयश,मानअपमान की चिंता किए बगैर।
स्वार्थ, मोह,अहंकार उस पवित्र आत्मा से सदैव दूर रहते है।
खुद की इच्छा का या अस्तित्व का प्रश्न ही नही रहता।ऐसे महात्मा ईश्वरी शक्ति से पूर्ण एकरुप हो जाते है।

जीवन की नैया तूफान में,चक्रावात में फँस जाए या भँवर में फँसकर डुब जाए,या फिर सद्गुरु इच्छा और ईश्वरी इच्छा से सभी सुखों की,राजऐश्वर्य की प्राप्ति हो जाए,यश-किर्ती मिले दोनो समसमान रहते है।
ना सुख की अभिलाषा है,ना दुख की चिंता है।
अगर ऐसा व्यक्ति राजऐश्वर्य में रहता है,और अगर सद्गुरु का आदेश मिल जाए,की...
सब राजऐश्वर्य छोडकर जंगल में चला जा।
तभी भी ऐसे व्यक्ति एक पल का भी विचार किए बिना,सद्गुरु इच्छा के लिए सबकुछ छोड देते है,अर्थात झूटी माया त्याग देते है।
और इसे ही असली बैराग्य भी कहते है।सद्गुरु इच्छा के सामने खूद के देह की या प्राणों की भी पर्वा, फिकर नही रहती है।
रामदास स्वामी के शिष्य कल्याण स्वामी का ठीक ऐसा ही उदाहरण है।

और ऐसे गुरु -शिष्य, भक्त-भगवान की जोडी युगों युगों तक प्रसिद्ध भी रहती है,और आत्मशक्ति द्वारा, चैतन्य शक्ति द्वारा जीवित भी रहती है।
जैसे की,
राम -हनुमान,
कृष्ण-अर्जुन,
रामदास स्वामी-कल्याण स्वामी,
राधा-कृष्ण,
मिरा -कृष्ण।
आत्मे दो,देह एक।
मगर ऐसा दिव्यत्व, ऐसा दिव्य प्रेम, ऐसा स्वर्गीय प्रेम, ऐसा ईश्वरी प्रेम बहुत ही कम देखने को मिलता है।

और जीसे भी ऐसा दिव्यत्व प्राप्त होता है,उसका जीवन धन्य होता है।
यही जीवन का उद्देश्य, सफलता और नरदेह का ईश्वरी प्रायोजन भी है।
ऐसे सद्गुरु के दिव्य प्रेम से तो मेरा जीवन सफल हो गया।
पंचमहाभूतों का यह देह निमित्तमात्र ,मात्र बन गया।कर्ता करविता मेरे सद्गुरु तथा ईश्वर बन गया।

हरी ओम।
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विनोदकुमार महाजन।

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